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________________ [२.५] अंतराय कर्म १८९ समाधि चाहिए, मुक्ति चाहिए, दिव्यचक्षु, जो भी चाहिए वह माँगो न ! आप माँगो और मैं दूंगा। उसमें वास्तव में 'मैं' देनेवाला नहीं हूँ। मैं तो इसमें निमित्त हूँ। आपका ही माल देना है, सिर्फ ऐसा है कि चाबी मेरे पास है। इसलिए अब माँग लो जो भी माँगना है, वह। अभी नहीं माँगना है तो दो महीने बाद माँगना। बाद में देंगे तो फिर! तब क्या फिर वापस यहाँ पर आनेवाले हो? प्रश्नकर्ता : नहीं-नहीं, तो फिर कल पर इसे बाकी क्यों रखें? दादाश्री : यह तो ऐसा है न, अभी अगर अंतराय हों न तो मन अंदर से ऐसा कहेगा, 'हो जाएगा, हमें क्या जल्दी है?' मन ऐसा कहेगा अंदर से। अभी भी अगर अंतराय पड़े हुए होंगे तो क्या हो सकता है? सत्संग में, 'दादा' के परम सत्संग में जाने का मन होता रहे, तो वह अंतराय टूटने की शुरुआत है, लेकिन अगर वहाँ जाने में परेशानी या रुकावट न आए तो उसे कहेंगे, 'अंतराय टूट गए।' वे अंतराय टूट जाएँगे। दादा भगवान का नाम लोगे न, तो अंतराय टूट जाएँगे। 'दादा भगवान को नमस्कार करता हूँ' बोलोगे न तो टूट जाएँगे। इसलिए बोलना। वह सब कृपा से होता है। हाँ, कृपा से क्या नहीं हो सकता? शब्दों की क्या क़ीमत है? लोगों को अंतराय पड़े हुए हैं। नकद मोक्ष है फिर भी हमसे मिल नहीं पाते। यह भी आश्चर्य है न! प्रश्नकर्ता : पड़ोस में होते हैं, फिर भी नहीं हो पाता न! दादाश्री : यही सारे अंतराय हैं न। साल भर से लगे हुए थे? साल दो साल से पीछे पड़े होंगे, नहीं? प्रश्नकर्ता : लेकिन मैंने आपसे कहा ज़रूर था कि 'आऊँगा'। लेकिन फिर योग नहीं बैठा। दादाश्री : नहीं, लेकिन वही अंतराय है न! दूसरे लोगों को अंतराय कम होते हैं और आपके तो ज़्यादा हैं क्योंकि दूसरे लोग वाइज़ हैं और सिर्फ ये ही वाइज़ नहीं हैं, ओवर वाइज़ हैं। आप ओवर वाइज़ हुए हैं कभी?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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