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________________ [२.५] अंतराय कर्म १८५ कृपालुदेव ने कहा है कि अभिनिवेष (अपने मत को सही मानकर पकड़े रखना) मत करना। तो सभी जगह अभिनिवेष ही हो रहे हैं और वहाँ पर जड़ दशा है। ऐसा मत करना। आत्मा के संबंध में जड़ दशा और वह ज्ञान कौन सा है? शुष्कज्ञान। तो जिसके लिए कृपालुदेव ने सावधान किया है, वही सब चल रहा है। अब बोलो, तो ये लोग कृपालुदेव के विरुद्ध जाकर कर रहे हैं, यानी कि कृपालुदेव की आज्ञा का उल्लंघन किया। उससे जो दोष लगा है, वह कौन छुड़वाएगा अब? भले ही अज्ञान से हुआ, नासमझी से हुआ। उसे समझ नहीं है इसलिए कर रहा है। नासमझी से अंगारों में हाथ डाले तो? प्रश्नकर्ता : जल जाएगा। दादाश्री : इसलिए हैं कि यह सब समझकर करो नहीं तो मत करो। आपको किसने ऊपर लटकाया था कि ऐसा कर रहे हो? खा-पीकर मौज करो न आराम से। और अगर बात करो तो समझकर करो। आयुष्य के अंतराय लोग सिर्फ मृत्यु के अंतराय कम डालते हैं। प्रश्नकर्ता : मृत्यु के? दादाश्री : हाँ, कोई अंतिम अवस्था में हो तो कोई ऐसा नहीं कहता कि 'यह जाए तो अच्छा।' वह अंतराय नहीं डालता। और कितने ही लोग तो, 'बच जाए तो अच्छा,' तो वे खुद अंतराय के विरुद्ध चलते हैं। अतः खुद बचेंगे। यह तो न्याय है। यह जगत् अर्थात् न्याय स्वरूप है। तेरे ही एक्शन और तेरी बातें, तेरी ही समझ, और तेरा उसी से चलेगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, जगत् न्याय स्वरूप है, यह बात तो ठीक से समझ में आ गई लेकिन ऐसे उदाहरणों से और ज्यादा स्पष्ट हो जाता दादाश्री : स्पष्ट हो जाता है। विस्तार से समझ लें न तो स्पष्ट हो जाता है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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