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________________ [२.५] अंतराय कर्म १८३ किससे टूटते हैं अंतराय कर्म? प्रश्नकर्ता : जो अंतराय पड़ रहे थे, वे सभी पुण्यानुबंधी पुण्य से हट जाते हैं? लाभांतराय, दानांतराय वगैरह जो अंतराय आते थे। भोजन तैयार होने के बावजूद भी खा नहीं पाते थे। दादाश्री : नहीं, वह तो जितना पुण्य होता है न, उतना ही फल देता है। चला नहीं जाता। उसमें हटाने का गुण नहीं है, उसमें फल देने का गुण है। अंतराय कर्म का नाश कैसे हो सकता है? जो अंतराय कर्म हैं, उन कर्मों को तोड़ने से, उनके विरोधी स्वभाव से, वे सब चले जाते हैं। जिस वजह से अंतराय कर्म उत्पन्न हुए हैं, अगर अपनी वह दशा न हो, तो वे चले जाएँगे। ऐसे ही अंतराय डालते रहे हैं। अंतराय अर्थात् खुद की इच्छानुसार सफलता न मिलना। वर्ना ऐसा है कि इच्छानुसार अर्थात् इच्छा होते ही हाज़िर हो जाए। तब क्या कोई भी पुरुषार्थ नहीं करना पड़ेगा? नहीं, सिर्फ इच्छारूपी पुरुषार्थ या इच्छा होनी चाहिए। हमारा काफी कुछ भाग, 80% हमारी इच्छा होते ही तुरंत सबकुछ हाज़िर हो जाता है इच्छा न हो फिर भी आती ही रहती हैं सारी चीजें। अतः मैं आपसे क्या कह रहा हूँ कि सभी अंतराय टूट जाएँ, ऐसा रास्ता बना दिया है मैंने आपके लिए। ये सारी आज्ञाएँ दी हैं न, उनसे सभी अंतराय टूट जाएँगे। समभाव से निकाल करो। प्रश्नकर्ता : आपने कहा है कि हमारा एटी परसेन्ट इच्छानुसार होता है, तो बाकी के बीस प्रतिशत का क्या? दादाश्री : उस बीस प्रतिशत की हमें पड़ी ही नहीं है। इच्छा होने पर भी अगर कभी न मिले तो देर से मिलता है। देर से यानी कि दो-तीन दिन बाद मिलता है लेकिन उसका निबेड़ा आ जाता है। और वह जो तुरंत
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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