SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) हैं।' हाँ, स्वभाव। लेकिन फिर उसकी इच्छा के अनुसार ही सबकुछ होता है। इच्छा के अनुसार ही भोग, इच्छा के अनुसार ही उपभोग और इच्छा के अनुसार ही दान। फिर आता है लाभ, इच्छा के अनुसार लाभ किसे होता है? उसे, जिसने कोई उल्टी रकम इकट्ठी नहीं की हो। किसके लाभ के लिए यह सब करता है? कि इन लोगों का इतना काम हो जाए। उससे उसके लाभ अंतराय टूटते हैं। जबकि दूसरा कोई ऐसा हो जिसने ऐसी भावना की होती है 'दूसरों को अलाभ हो जाए' तो उसे लाभांतराय पड़ता है। किसी को लाभालाभ होता है। पलभर में अलाभ होता है और पलभर में लाभ होता है। लाभ होता है और अलाभ होता है लेकिन जब लाभ का अंतराय चला जाता है, तब वह अनंत लाभ की प्राप्ति करता है। __ अतः भगवान क्या कहते हैं कि 'जब अंतराय टूट जाएँ, तब अनंत लाभ होता है।' अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य प्रकट होता है। नहीं तो यह वीर्य अंतराय किस कारण से है कि 'मैं कर रहा हूँ लेकिन हो नहीं पाता।' वह किसलिए? क्योंकि वीर्य अंतराय हैं। अतः ऐसे अंतराय डाल दिए हैं, हर किसी बात में अंतराय डाले हैं। अब अगर उसे समझ होती तो अंतराय नहीं डालता लेकिन अब समझाए कौन? । फिर आता है अनंत वीर्य! अनंत शक्ति, अपार शक्ति! यों हाथ लगाते ही काम हो जाए, सामनेवाले का काम कर दे। ये अच्छे इंसान हैं न, वे या फिर ये लोग अच्छे हैं? कौन से अच्छे हैं? प्रश्नकर्ता : तीर्थंकर। दादाश्री : उन लोगों ने अनुभव में देखा है यह सब। देखकर कहा है। उसके बाद लिखा गया है। अनंत जन्मों से यही रास्ता चला आया है। आपको अच्छा लगा यह रास्ता? प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा, अच्छा ही लगा है न! । दादाश्री : नहीं! लेकिन बात कैसी, समझदारीवाली!
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy