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________________ [२५] अंतराय कर्म १७७ प्रश्नकर्ता : तो अगर रोग मिटनेवाला होगा तो वह दवाई उसे मिल जाएगी? दादाश्री : नहीं, वह तो शायद न भी मिटे, शायद बढ़े भी सही । हाँ, लेकिन यह तो ऐसा है कि जो दवाई ली है, वह इसलिए कि वही परमाणु अंदर हैं लेकिन अगर नहीं ली और सिर्फ सोचते रहे, 'ऐसा करें और वैसा करें' तो वह अंतराय है ! 'डॉक्टर अच्छा नहीं है, वैद्य अच्छा है, फलाना अच्छा है, ' अगर ऐसा सोचा तो वह सब अंतराय है । प्रश्नकर्ता : तो ऐसे समय में कोई पुरुषार्थ करना ही नहीं है? देखते ही रहना है? दादाश्री : पुरुषार्थ किसे कहते हैं ? देखते रहना ही पुरुषार्थ है। ज्ञाता-दृष्टा रहना ही पुरुषार्थ है । प्रश्नकर्ता : लेकिन डॉक्टर के पास जाना, जाँच करवाना, ऐसा सब नहीं करना है? दादाश्री : तब क्या होता है, उसे देखो । जाना, जाँच करवाना, उसे अंतराय नहीं कहा जाता। 'चंदूभाई' जा रहे हों तब पूछना 'क्यों आपको ऐसा लग रहा है कि जाना ज़रूरी है?' तब अगर वह कहे, 'हाँ' तो हमें कहना है ‘तो फिर जाओ।' उससे कुछ भी अंतराय नहीं पड़ेंगे । आपके हाथ में सत्ता है ही कहाँ कि डॉक्टर के पास नहीं जाएँ तो चलेगा। ऐसा कैसे कह सकते हो ! डॉक्टर के पास जानेवाला अलग है, आप अलग हो या फिर यों ही? I प्रश्नकर्ता : तो फिर दादा, अगर ज्ञाता - दृष्टा के पुरुषार्थ में रहें, ‘जो हो रहा है वही करेक्ट है, ' इस तरह से देखते रहें, जो होना है उसे, तो प्रकृति को फुल स्कोप मिल जाएगा, उसे जो करना है वही होगा । दादाश्री : प्रकृति में अंतराय नहीं डालने हैं। ऐसा करना या नहीं करना, ऐसा बोले कि वहीं पर अंतराय डाले ! उसे अंहकार करना कहते हैं ! प्रकृति क्या कर रही है, वह देखो न ! महावीर एक ही पुद्गल को देखते
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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