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________________ १६८ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) अगर आप उससे कहो कि 'इससे क्या फायदा? इन लोगों को क्यों भोजन करवा रहा है? इसके बजाय इन दादा के महात्माओं को खिला न!' आपने उधर पुण्य बाँधा लेकिन यहाँ बहुत बड़ा अंतराय डाला। आप थाली लगाकर खाना खाने बैठोगे, फिर भी खाना नहीं खा पाओगे! हाथ में आया हुआ भी चला जाएगा। यह है अंतराय! आपने जितने अतराय डाले हुए हैं, उतने ही आपके अंतराय हैं! लोगों को जो प्राप्त हो रहा हो, उसमें आप बुद्धि से रुकावट डालते हो, कि इसमें देने जैसा क्या है? कोई दे रहा हो तो हमें बोलना नहीं चाहिए। बोलना तो बुद्धि की अक्लमंदी है। मार डालती है हमें। कोई दे रहा हो तब आप क्यों बोलते हो? मैंने बुद्धि से ऐसा ही सब किया था। उससे अंतराय ही डल रहे थे सारे। सामने चीज़ हो फिर भी खाने नहीं दे, भोग है फिर भी भोगने न दे, वे सभी अंतराय हैं। ऐसे बहुत से अंतराय हैं। लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोग अंतराय, दानांतराय, वीर्यांतराय, ऐसे सभी तरह-तरह के अंतराय डाले हैं मनुष्य ने। खुद परमात्मा होने के बावजूद भी जानवर जैसे दुःख उठा रहा है। है परमात्मा, उसमें दो मत नहीं हैं। मेरी दृष्टि में तो सभी दिखते हैं न, परमात्मा। है परमात्मा, लेकिन अब क्या हो सकता है? इसीलिए यह ज्ञान देता हूँ कि जो जकड़ा हुआ है, जो फँसा हुआ है, जो बंधन में आ गया है, उसकी मुक्ति हो जाए। ये सारे अंतराय खुद के ही डाले हुए हैं पिछले जन्म में। पिछले जन्म में आम मिलें न, तो उनके लिए कहा हो कि 'इनमें क्या खाने जैसा है? यह कोई खाने जैसी चीज़ नहीं है! वगैरह वगैरह।' ऐसा सब किया होता है इसलिए उस जन्म में तो ठीक है लेकिन इस जन्म में भी नहीं मिल पाते ! मिल नहीं पाते और इस जन्म में लोगों के कहने से हमें पता चला कि आम बहुत अच्छी चीज़ है, विटामिनवाला है। इसके बाद हम ढूँढते हैं लेकिन मिलता नहीं है क्योंकि उसे तरछोड़ (तिरस्कार सहित दुतकारना) मारी थी। यानी कि इस तरह अंतराय डाले हुए होते हैं। अंतराय डालते ही करो प्रतिक्रमण अब कोई व्यक्ति ब्राह्मण को दान में सौ रूपये का कपड़ा दे रहा
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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