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________________ १५० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) देख सकता है बेचारा। अन्य कुछ नहीं दिखता। अतः जितना आँखों से दिखता है उसी को कबूल कर लेता है। इस ज्ञान को वह उतना ही समझ सकता है जितना बुद्धि से समझ में आता है। बाकी, अंदर तो अपार ज्ञान है लेकिन अपने पास जो सत्ता है, सामान, उसके आधार पर कुछ कह सकते हैं। प्रश्नकर्ता : दादा, यह ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय (कर्मों का बंधन) कैसे हुआ होगा? उदाहरण देकर समझाइए न! दादाश्री : मतलब वह अपने आप ही मान लेता है कि 'मैं बच्चा हूँ,' तो उससे ज्ञानावरण कर्म बंध जाता है। पिछले जन्म में हमने शुद्धात्मा सिखाया हो न, तब भी इस जन्म में लोगों के संग से उसे वापस ज्ञानावरण आ जाता है, लेकिन अपना ज्ञान ऐसा है कि उस पर ज्ञानावरण आ तो जाता है लेकिन जब समझने लगता है न, तब छूट जाता है अपने आप ही। यों ही थोड़ा भी, अगर कोई भी निमित्त मिले न, तो पूरा छूट जाता है। लेकिन ज्ञानावरण तो लोग जो अज्ञान देते हैं न, उसी को कहना पड़ता है न! और फिर नाम रखते हैं 'चंदू'। हमें कहना पड़ता है न 'चंदू'! 'मैं चंदू हूँ,' फिर यह बताते हैं कि ये तेरे पापा हैं, ये तेरी मम्मी हैं और फिर पापा को 'पापा' कहना पड़ता है। हैं सभी आत्मा और हम समझते हैं कि 'ये पापा आए।' अर्थात् इन सब से ज्ञानावरण और दर्शनावरण बनते हैं। मैं चंदू हूँ' पहले उसकी श्रद्धा बैठती है। उससे फिर दर्शनावरण तैयार होता है। फिर ज्ञान में आ जाए, अनुभव में आ जाए तब ज्ञानावरण हो जाता है। ऐसा होने के बाद अंतराय पड़ने लगते हैं सभी प्रकार के और फिर मोह उत्पन्न होता है। मोहनीय उत्पन्न होता है। मोहनीय (कर्म) बंधता है। चारों ओर का व्यापार शुरू हो जाता है ऐसे। तो ये मेरे ससुर आए, मेरे मामा आए, मेरे चाचा आए ऐसा सब कौन दिखाता है? उल्टी पट्टियाँ हैं इसलिए। उल्टा दर्शन है, मिथ्यात्व दर्शन है। मिथ्यात्व दर्शन अर्थात् उल्टी पट्टियाँ और वही द्रव्यकर्म है। और आवरण तो ज्ञान-आवरण व दर्शन-आवरण। बस और किसी
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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