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________________ [१.१०] प्रकृति को निहार चुका, वही परमात्मा १३३ उनके लिए भाव में पुरुषार्थ है। और अपने यहाँ पर तो भाव का पुरुषार्थ नहीं है। अपने यहाँ भाव को खत्म कर दिया है। इसलिए शुद्ध उपयोग ही अपना पुरुषार्थ है। प्रश्नकर्ता : वही अपना पुरुषार्थ है। अर्थात् जितने समय तक ज्ञातादृष्टा रहते हैं, वही पुरुषार्थ है! दादाश्री : या फिर दूसरों में शुद्धात्मा देखो या फिर आज्ञा पालन करो तो पुरुषार्थ है। मेरी जो पाँच आज्ञा हैं न, उन्हें पालो तो उस घड़ी पुरुषार्थ है ही। अर्थात् पाँच आज्ञा में रहे न तो वह शुद्ध उपयोग ही है। वर्ना प्रकृति को निहारना है। अभी अगर चंदूभाई किसी से किच-किच कर रहे हों, तो उस पल वह खुद चंदूभाई को देखे कि ओहोहो, कहना पड़ेगा! अभी भी वैसे के वैसे ही हो आप, कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। इस तरह देखे तो वह शुद्ध उपयोग कहलाएगा! प्रश्नकर्ता : 'प्रकृति को निहारे वह पुरुष और जो प्रकृति को निहार चुका है वह परमात्मा है।' यह ज़रा अच्छी तरह समझाइए। दादाश्री : अर्थात् चंदूभाई की प्रकृति, चंदूभाई क्या कर रहे हैं, इन सब को जो निहारे, वह पुरुष कहलाता है और जो निहार चुका है वह परमात्मा है। प्रश्नकर्ता : पुरुष और परमात्मा में क्या फर्क हैं? दादाश्री : पुरुष जो है, वह अभी परमात्मा हो रहा है। जबकि परमात्मा के लिए फिर कोई भी क्रिया नहीं रही, खुद ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी हैं, जबकि आपको फाइलों का निकाल करना बाकी है, बस। अर्थात् पुरुष अभी तक देखने का अभ्यास कर रहा है कि यह प्रकृति कर रही है, यह वह खुद नहीं कर रहा है, वह सब यह प्रकृति कर रही है। ऐसा जो समझे वह पुरुष कहलाता है। सामनेवाला गालियाँ दें तब मन में ऐसा रहे कि 'ओहोहो! यह कर्ता नहीं है। यह तो प्रकृति कर रही है।'
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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