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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : तो मूल आत्मा की नकल जैसा अर्थात् ज्ञान-दर्शनचारित्र। ऐसा? दादाश्री : जैसा वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप है, वैसा ही यहाँ पर व्यवहार में, ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप रहता है। वहाँ पर सभी कुछ आदर्श रहता है। आग्रह-वाग्रह कुछ भी नहीं होता। कोई दु:ख भी नहीं रहता, कोई झंझट नहीं रहता। प्रश्नकर्ता : नहीं लेकिन यह व्यवहार अर्थात् पुद्गल ही रहा न? तो फिर पुद्गल कौन से पुद्गल को स्पर्श करता है? अर्थात् पुद्गल के सभी स्वांग खत्म हो जाएँ, पुद्गल के सभी स्वभाव खत्म हो जाने पर और फिर.... दादाश्री : यह जो मेरा पुद्गल है, क्या यह आपके पुद्गल से उच्च कक्षा का नहीं है? आगे बढ़ते-बढ़ते मेरी चार डिग्री पूर्ण हो जाएँ तो भगवान जैसा स्वरूप दिखाई देगा। मेरा वर्तन और आचरण सभी कुछ। अर्थात् शरीर भी भगवान जैसा हो जाएगा। तीर्थंकरों का शरीर भी भगवान हो गया था। इसलिए ये सभी लोग कबूल करते हैं न? प्रश्नकर्ता : अर्थात् अंदर यह शरीर तो वैसा ही है लेकिन बीच का कुछ बदल जाता है? शरीर भले ही वैसा ही रहा। चार डिग्री में बदलाव किस बारे में, किस तरफ होता है? दादाश्री : यह जो अंदर है, इस देह के आधार पर ही यहाँ पर लोगों को कमी दिखाई देती हैं। चार डिग्री के आधार पर लोगों को यह कमी दिखाई देती है। कपड़े हैं, फलाना है, अँगूठी है, बाल बनाए हैं। यह भोजनवोजन वगैरह सबकुछ दिखाई देता है न, वहाँ ऐसा सब नहीं दिखता। प्रश्नकर्ता : अर्थात् वे जो चार डिग्री बदल जाएँ तो.... दादाश्री : फिर किसी को भी शंका हो, ऐसा नहीं रहता। प्रश्नकर्ता : अंदर तो तीन सौ साठ पूरी हैं न? दादाश्री : वह तो है ही न!
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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