SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१.७] प्रकृति को ऐसे करो साफ... है हम से! बाकी, शुरुआत में तो हम से पूछता है । उसके बाद जब बहुत मिठास आने लगती है, तब छुपाने लगता है। सावधान होकर चलना प्रकृति को करो माफ ८९ प्रश्नकर्ता : आपके सत्संग में आपका यह वचन आया था कि खुद की प्रकृति को माफ किया जा सकता है, लेकिन उसका रक्षण नहीं करना चाहिए, उसका बचाव नहीं करना चाहिए। उसका भेद ज़रा समझाइए उदाहरण देकर। दादाश्री : जब रक्षण और बचाव करते हैं तब हम प्रकृति के साथ ही हो गए अर्थात् 'पर' के मालिक बन गए । प्रकृति ने उल्टा किया हो तो उसे माफ किया जा सकता है क्योंकि तब खुद में रहकर माफ कर सकते हैं। जबकि बचाव तो ‘पर' में जाकर करना पड़ता है। 'पर' के मालिक बन जाते हैं। उसने चाहे कैसा भी गुनाह किया हो तो भी माफ किया जा सकता है। माफ तो खुद उससे अलग रहकर किया जा सकता है और जब बचाव करते हैं तो 'पर' के मालिक बनकर ही करते हैं । रक्षण करें तब 'पर' के मालिक बनकर ही करते हैं । उसी पक्षवाला हो गया न ! और माफ करना उस पक्ष का नहीं कहलाता । माफ करना तो खुद का स्वभाव ही है। प्रश्नकर्ता : प्रकृति को माफ किया जा सकता है, खुद के स्वभाव में रहकर, तो वह क्या है ? I दादाश्री : प्रकृति चाहे कितनी भी गलत हो फिर भी उसे माफ करने के सिवा अन्य कोई उच्च (बेहतर) रास्ता नहीं है । बाकी सभी रास्ते तन्मयाकार होने के हैं इसलिए माफ कर पाए तो अलग रह पाओगे। प्रकृति खराब हो और उसका बचाव किया तो उस पक्ष में चला गया । रक्षण करने से तो प्रकृति बढ़ जाती है। खुद को अच्छी लगे, ऐसी प्रकृति आ जाए न तो उसे राग कहते हैं । रक्षण करना अर्थात् प्रकृति पर राग । बचाव करना भी राग ही है। प्रश्नकर्ता : ‘इस प्रकृति को ही माफ कर दो,' इसका मतलब क्या है?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy