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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रकृति करवाए तब तक करना लेकिन बढ़ावा मत देना। अंदर रुचि नहीं लेनी चाहिए। यह हितकारी प्रवृत्ति नहीं है । जो कार्य कर सकते हो न, वह डिस्चार्ज हो रहा है। जो कार्य आप से हो रहा है, वह डिस्चार्ज है। लेकिन उसमें आप जो रुचि लेते हो, वह रुचि मत लेना। ये रुचि लेने योग्य चीजें नहीं है। ये आपको भटकाकर फेंक देंगी। जो मीठा लगता है, स्वादिष्ट लगता है, वह गिरा देगा ! ८८ यह जो प्रकृति उत्पन्न हो चुकी है न, तो अभी आप उसके कर्ता नहीं हो, यह तो डिस्चार्ज है । इसीलिए हम डाँटते नहीं है कि 'ऐसा हुआ ?' लेकिन आपको एन्करेज भी नहीं करते । आपको मन में ऐसा लगेगा कि 'न जाने क्या हो गया यह !' तो बल्कि बिगाड़ दोगे ! बगैर समझे, किसे कितनी दवाई देनी है, वह जानते नहीं हो और चाहे किसी को भी दवाई दे दोगे। वह आपका काम नहीं है । यह सब तो प्रकृति है, उसे उदासीन भाव से देखते रहो। बहुत इन्टरेस्ट मत लेना । इस प्रकृति से किसी को नुकसान नहीं हो, उतना देख लेना । खुद का जो कार्य है, वह करना । यह तो सिर पर आ पड़ी, भरी हुई प्रकृति है! छुटकारा ही नहीं हैं । ढूँढ निकालेगी कुछ उल्टा, वहाँ पर जा आएगी । जिसमें स्वाद आए, उसमें मिठास आती है। और फिर यह मिठास प्राकृतिक मिठास है, आत्मा की मिठास नहीं है। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है। प्रश्नकर्ता : उसके बारे में ज़रा विस्तार से समझाइए । दादाश्री : आप सभी ये पाँच आज्ञा ही पालो न, उसी में गहरे उतरो। अभी तक पाँच आज्ञा का भी पूरी तरह से पालन नहीं हो रहा न! यह तो, आपको अच्छा लगे ऐसा कुछ कहते हैं। यानी कि हमें खुशी नहीं है, फिर भी खुशी दिखाई है । प्रश्नकर्ता : आपको सभी गलतियाँ बताने का यही कारण है। हमें प्रोपर मार्गदर्शन मिलेगा ही यहाँ पर, ऐसा हमें दृढ़ विश्वास है । कुछ भी नहीं छुपाने का कारण ही यह है ! दादाश्री : वह तो जब मिठास आने लगती है न, तब छुपाने लगता
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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