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________________ [१.६] क्या प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है? ७७ है। वह भी निर्जीव चीज़ है। यह क्रोध निर्जीव है। वह तो जब कर्तापना सहित होता है, तभी जीवंत कहलाता है। ज्ञान के बाद आपका सारा कर्तापन खत्म हो जाता है न, इसलिए यह क्रोध दुःखदाई रहता ही नहीं। चींटीमच्छरों के काटने को काटना नहीं कहते। बिच्छू काटे, तब उसे काटना कहते हैं। ये चींटी-मच्छर जैसा बचा है अब! बिच्छू जैसा काटना चला गया है। सभी गाँठे अहंकार की ही हैं, पागलपन। उसे दादा खत्म कर देते हैं न! दिखाई दे तो 'हम' बॉस और न दिखाई दे तो 'प्रकृति' बॉस प्रश्नकर्ता : मान लीजिए कि किसी की प्रकृति हमेशा ही डखोडखल (दखलंदाजी) करनेवाली हो, तो 'मेरी प्रकृति ऐसी है' ऐसा करके उसका रक्षण तो नहीं करना चाहिए न? दादाश्री : रक्षण करे उसे भी हमें जानना चाहिए। रक्षण करनेवाली भी प्रकृति है। प्रश्नकर्ता : लेकिन पुरुषार्थ में रहने के लिए हमें इस प्रकृति को घोड़ा बनाकर लगाम कसकर उस पर बैठना चाहिए। एक बार मना किया, दूसरी बार मना किया तो हमें समझ नहीं जाना चाहिए कि यह प्रकृति अपने पर सवार हो गई है! तो हमें प्रकृति पर कैसे सवार होना है? दादाश्री : जब तक हमें प्रकृति दिखाई देती है, तब तक हम सवार है, और अगर नहीं दिखाई दे तो वह हम पर सवार हैं। प्रश्नकर्ता : इसका अर्थ यह हुआ कि जब इस खराब प्रकृति को देखते हैं, तब वास्तव में हम उस पर सवार ही हैं! मान लीजिए कि मेरी प्रकृति शंका करने की है, तो ऐसे संयोग खड़े होते हैं कि शंका होने लगी, तो वह प्रकृति तो बिल्कुल खराब है क्योंकि शंका तो होनी ही नहीं चाहिए। तब ऐसे समय में इस प्रकृति का क्या करना चाहिए? उसे सीधे रास्ते पर लाने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : आपको सीधा हो जाना है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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