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________________ ६४ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता: हाँ, ऐसा लिख दिया है। दादाश्री : वह सिद्धांत भी हृदय में ही रहता है और प्रोब्लम सोल्व कर दे तो कोई भी उलझन खड़ी न हो । प्रश्नकर्ता : प्रकृति का निग्रह नहीं किया जा सकता, वह एक बात है, तो उसमें इस प्रकृति को क्या समझना चाहिए? इसे जड़ समझें? दादाश्री : परिणाम नहीं बदल सकते । इसमें जड़-चेतन का सवाल ही नहीं रहता न! कॉलेज में परीक्षा दे दी, तो उसके परिणाम में क्या कोई परिवर्तन हो सकता है? यहाँ पर परिणाम इन लोगों के हाथ में होता है, तब भी ज़्यादा कोई परिवर्तन नहीं हो सकता । वहाँ तो बगैर खटपटवाला है न! परिणाम अर्थात् इफेक्ट, कोई बदलाव नहीं हो सकता। प्रकृति ये सारे इफेक्ट ही दे रही है। अतः खुद कुछ भी बदल नहीं सकता । अतः संक्षेप में ऐसा कह दिया था कि ‘निग्रह किम् करिष्यति', इन साधुओं को अच्छी नहीं लगती। ज्ञानी इसे समझ गए कि प्रकृति का निग्रह नहीं किया जा सकता, प्रकृति को देखना है। उसके बजाय लोग प्रकृति का निग्रह करने में पड़ गए ! प्रकृति की आदतें नहीं छूटतीं जल्दी प्रश्नकर्ता : कुछ खास प्रकार की प्रकृति होती ही है इंसान की या फिर उसे आदत पड़ चुकी होती है, ऐसी प्रकृति होती है। वह जल्दी से नहीं छूटती । क्या ऐसा है? दादाश्री : नहीं छूटती । आदत पड़ गई हो तो वह प्रकृति बहुत समय बाद छूटती है। प्रश्नकर्ता : तो फिर यह जल्दी छूटे उसके लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : जितनी ज़ोरदार होगी, जितना फॉर्स होगा उतने समय तक चलेगी। यह तो बॉल है न, तो इसे अगर इतनी ऊँचाई पर से ऐसे फेंके तो क्या तुरंत बंद हो जाएगी ? नहीं! इसके जैसा है ।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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