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________________ [ १.३ ] प्रकृति जैसे बनी है उसी अनुसार खुलती आसक्ति है प्रकृति को प्रश्नकर्ता : ज्ञान मिलने के बाद ऐसी श्रद्धा है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' लेकिन जो आसक्ति है वह एकदम से छूटती नहीं है न ? दादाश्री : आसक्ति तो प्रकृति को है, पुरुष को आसक्ति नहीं है। पुरुष तो एक बार अलग हो गया न, इसलिए फिर पुरुषार्थ ही करता रहता है और प्रकृति आसक्तिवाली कहलाती है । प्रकृति आसक्ति करती रहती है। पुरुष और प्रकृति दोनों अलग हो जाने चाहिए। इन्हें कोई जुदा करके नहीं देता है। कभी-कभी ही, जब ज्ञानीपुरुष अवतरित होते हैं, दस लाख सालों में एक बार, तब दोनों को जुदा कर देते हैं । तब तक सबकुछ करते ही रहना पड़ता है। जबकि इसमें प्रकृति और पुरुष दोनों को जुदा कर देते हैं तब फिर पुरुष, पुरुष के स्वभाव में और प्रकृति, प्रकृति के स्वभाव में। प्रकृति आसक्ति में रहती है और पुरुष ज्ञाता - दृष्टा रहता है। और ऐसा ज्ञान देने के बाद तो यह पुरुष और प्रकृति दोनों को जुदा कर देते हैं। इससे खुद पुरुष बनता है । पुरुष पुरुषार्थ सहित है। कितना अधिक पुरुषार्थ कर सकता है इसमें ! और लोग तो आपकी प्रकृति को ही देखते रहते हैं। अरे, प्रकृति को मत देख, पुरुष को देख । अगर प्रकृति देखेगा तो जैसा था वैसा ही स्वभाव दिखेगा । छोड़ ना इसे । उसे नहीं देखना है। संडास नहीं जाता? क्या ज्ञान लेने के बाद संडास बंद हो जाता है ? प्रश्नकर्ता : नहीं वह तो चलता ही रहता है न ! दादाश्री : तब क्या कढ़ी ज़्यादा खाता हो तो बंद हो जाती होगी?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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