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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) डिस्चार्ज होती ही रहती है, अपने आप ही। उसे हम कहते हैं कि 'व्यवस्थित है।' प्रकृति, अहंकार के ताबे में या व्यवस्थित के? प्रश्नकर्ता : प्रकृति और व्यवस्थित एक ही चीज़ है? दादाश्री : अपनी प्रकृति व्यवस्थित के ताबे में है और अज्ञानी की प्रकृति अहंकार के ताबे में है। 'अहंकार के ताबे में है,' इसका मतलब क्या है? वह पागलपन भी कर सकती है। अहंकारी इंसान व्यवस्थित की तो सुनता ही नहीं है न! अपने महात्माओं का तो वह अहंकार चला गया है, उसके बाद सिर्फ व्यवस्थित रहा। प्रश्नकर्ता : व्यवस्थित और प्रकृति के बीच संबंध है क्या? दादाश्री : है न संबंध। प्रकृति व्यवस्थित ही है सारी। प्रकृति ऐसे कोई गप्प नहीं है। व्यवस्थित अर्थात् सत्तानवे के बाद अठानवे आकर खड़ा रहता है वह तो। अठानवे के बाद नब्बे नहीं आएगा, वह भी व्यवस्थित है। जैसा शोभा दे उस तरह से आता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् प्रकृति और व्यवस्थित में कुछ फर्क है? दादाश्री : बहुत फर्क है। व्यवस्थित, वह तो कार्य करता है, जबकि प्रकृति तो डिज़ोल्व होती रहती है। व्यवस्थित शक्ति को अंग्रेजी में 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' कहता हूँ। प्रश्नकर्ता : प्रकृति डिज़ोल्व होती रहती है तो फिर प्रकृति का नाश हो जाना चाहिए ना? दादाश्री : हाँ, नाश ही तो होने लगा है न यह, अब निर्जरा (आत्म प्रदेश में से कर्मों का अलग होना) ही होने लगेगी न। यह ज्ञान लेने के बाद नया कर्म नहीं बंधता, पुराने कर्म विलय होते रहते हैं, डिस्चार्ज होते रहते हैं। नया चार्ज नहीं होता। जब तक ऐसा भान था कि 'मैं कर्ता हूँ, तब तक नया चार्ज हो रहा था और अगर 'व्यवस्थित' कर्ता है तो, वहाँ
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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