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________________ आप्तवाणी-८ कि इतने सारे संयोग खड़े हो जाते हैं। और ये अनंत प्रकार की परतें तो उस कोहरे से भी ज्यादा हैं। ये इतने अधिक भयंकर आवरण हैं कि उसे भान ही नहीं होने देते। बाकी, आत्मा आया भी नहीं है और गया भी नहीं है। आत्मा खुद ही परमात्मा है! लेकिन भान ही नहीं होने देता, यह भी आश्चर्य है न! और यह 'ज्ञानी' ने देखा है, जो मुक्त हो चुके हैं उन्होंने देख लिया है। अतः ये सब बुद्धि के प्रश्न हैं। प्रश्न मात्र बुद्धि के हैं और बुद्धि खत्म हो जाए तब यह ज्ञान हो सके ऐसा है। लोग तो कहते हैं, 'इसकी आदि कहाँ से?' अरे, आदि शब्द तू कहाँ से सीख लाया? ये सब विकल्प हैं। 'ज्ञानी' ने इनके विकल्पों का शमन करने के लिए ऐसा कहा है कि, 'अनादि-अनंत हैं!' प्रश्नकर्ता : 'अनादि-अनंत' का अर्थ समझ में नहीं आया। दादाश्री : अनादि-अनंत यानी क्या? कोई भी वस्तु गोल होती है न, उसकी शुरूआत का पता नहीं चलता और अंत का भी पता नहीं चलता! इस माला में अंत का पता चल सकता है क्या? शुरूआत का भी पता नहीं चलता न? इसलिए इसे अनादि-अनंत कहा है। लोगों को उनकी भाषा में समझाना पड़ता है न? बाकी, ऐसा कुछ होता ही नहीं है। अभी भी खुद परमात्मापद में ही है, लेकिन उसे भान नहीं है। इन संयोगों के प्रेशर के कारण भान चला गया है। अभी कोई कलेक्टर हो, लेकिन भान चला गया हो तब हम उनसे पूछे कि, 'आप कौन हो?' तब यदि उसे खुद का भान नहीं होगा तो क्या जवाब देगा? यहाँ जीवित मनुष्य का भान चला जाता है न? उसी तरह इसका भान बिल्कुल ही नहीं रहा। लोगों ने जैसा कहा वैसा असर होता गया, होता गया, और उसी अनुसार मान लिया है सबकुछ। सनातन की शुरूआत, वह क्या है? प्रश्नकर्ता : आत्मा को किसने बनाया?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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