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________________ आप्तवाणी-८ जड़ है, इन दोनों को साथ में रखा तो विशेषभाव उत्पन्न हो जाता है । कोई कुछ भी नहीं करता, लेकिन दोनों के इकट्ठे होने से विशेषभाव उत्पन्न होता है और विशेषभाव होने से संसार शुरू हो जाता है । फिर आत्मा जब वापस मूल भाव में आ जाता है और खुद जान लेता है कि 'मैं कौन हूँ' तब वह छूट जाता है। उसके बाद पुद्गल भी छूट जाता है। प्रश्नकर्ता: दोनों पास-पास में किस तरह से आए? दादाश्री : वही यह एविडेन्स है न! व्यवहार में प्रवेश करते ही यह सब मिल जाता है। यहाँ व्यवहार पूरा संजोगों से भरा हुआ है, और जहाँ संजोग नहीं होते, वहाँ तक जाना है, सिद्धपद में जाना है। इसके लिए शास्त्र, 'ज्ञानीपुरुष', ये सभी साधन मिल जाते हैं, और तब, जब वह खुद का स्वरूप समझे, तब से ही वह मुक्त होने लगता है । फिर एक जन्म, दो जन्म, नहीं तो पंद्रह जन्मों में भी उसका हल आ जाता है! ४८ यानी चेतन खुद पुद्गल के चक्र में पड़ा ही नहीं है। यह जो ऐसा लगता है कि पड़ा हुआ है, वह भी भ्रांति है। यह भ्रांति दूर हो जाए तो अलग-अलग ही हैं । आत्मा शुद्ध ही! बिलीफ़ ही रोंग प्रश्नकर्ता : आत्मा उसके मूल स्वभाव में तो शुद्ध है, तो उसे ये सब कषाय किस तरह से लग गए होंगे? और कर्म किस तरह से बँधे ? दादाश्री : यह साइन्स है ! हम यहाँ पर लोहा रख दें और यदि वह लोहा जीवित हो और कहे कि, 'मुझे जंग नहीं लगे', लेकिन साइन्स का नियम है, कि यदि उसे अन्य संयोगों का स्पर्श होगा तो उसे जंग लगे बिना रहेगा ही नहीं। उसी प्रकार से आत्मा मूल स्वभाव से तो शुद्ध ही है, परन्तु उसे इन संयोगों के दबाव से जंग लग गया है। प्रश्नकर्ता : आत्मा अभी कर्म से आवृत हैं, परन्तु आत्मा यदि कर्मों को खपा दे तो फिर उसे जंग लगेगा क्या? दादाश्री : ऐसा है न, जब तक खुद स्वभान में नहीं आता, तब तक
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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