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________________ आप्तवाणी-८ दादाश्री : हाँ, वही आत्मा, अन्य कोई नहीं। प्रश्नकर्ता : तो फिर आत्मा का भी जन्म हुआ, ऐसा कह सकते हैं न? दादाश्री : नहीं। आत्मा का जन्म होता ही नहीं। जन्म लेने का आत्मा का स्वभाव ही नहीं है। यह जन्म भी पुद्गल का होता है और मरण भी पुद्गल का होता है। परन्तु यह 'उसकी' मान्यता है कि 'यह मैं हूँ' इसलिए उसे साथ में घिसटना पड़ता है। बाकी, इसमें पुद्गल का जन्म और पुद्गल का ही मरण है। प्रश्नकर्ता : लेकिन पुद्गल के साथ आत्मा होता है न? दादाश्री : यह तो भ्रांति है, इसी वजह से पदगल साथ में है। वर्ना भ्रांति जाने के बाद पुद्गल और आत्मा का कोई लेना-देना नहीं रहता न! भ्रांति जाने के बाद तो जितना चार्ज हो चुका है, उतना डिस्चार्ज हो जाता है इसलिए फिर खत्म हो जाता है, फिर नया चार्ज नहीं होता। ये सभी कर्म जो अभी हो रहे हैं न, उन कर्मों का यदि 'मैं मालिक हूँ' ऐसा कहे, 'मैंने किया' ऐसा कहे, तो नया हिसाब बँधता है और यह व्यवस्थित ने किया' और 'मैं तो शुद्धात्मा हूँ' ऐसा समझ में आ जाए तो कर्मों के साथ उसका लेना-देना नहीं है। प्रश्नकर्ता : तब तो फिर जन्म ही नहीं होगा? दादाश्री : हाँ, फिर मुक्त हो जाएगा। परन्तु इस काल में अभी संपूर्ण डिस्चार्ज नहीं हो सकता। यानी धक्का इतना जोरदार है कि एक या दो जन्म और होते हैं। कर्ताभाव मिटा यानी बस, खत्म हो गया, कर्म बँधने रुक जाते हैं। प्रश्नकर्ता : पूर्वकर्म संबंधी आपके विचार जानने हैं। उदाहरण के तौर पर ये सूक्ष्म जंतु कौन-से कर्म करें कि जो उनके अगले जन्म में उपयोगी हो सकें?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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