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________________ आप्तवाणी-८ ३१९ स्थिर करना चाहती है। और वह भी गलत चीज़ नहीं है, स्थिर तो करना ही चाहिए और स्थिर करने से, उसे आनंद मिलता है। जितने समय तक यह प्रतिष्ठित आत्मा स्थिर रहता है उतने समय, रात को नींद में तो स्थिर हो जाता है, लेकिन दिन में भी जितने समय तक स्थिर रहे, उतने समय तक उसे आनंद रहता है। लेकिन वह आनंद कैसा होता है, कि बस, स्थिरता टूटी कि जैसा था वापस वैसे का वैसा ही हो जाता है। अब यदि साथ ही वह ऐसा जान ले कि मूल आत्मा तो स्थिर ही है, तो 'खुद' 'एडजस्टमेन्ट' ले सकेगा। लेकिन मूल आत्मा की बात लोगों को पता ही नहीं है। इस प्रतिष्ठित आत्मा को ही आत्मा के रूप में स्वीकारा गया है, जब कि वास्तव में यह आत्मा नहीं है। प्रतिष्ठित आत्मा, वह पुद्गल है, उसमें चेतन है ही नहीं। जिसमें जगत् चेतन मान बैठा है, उसमें चेतन नहीं है। यह मेरी खोज है। हम खुद देखकर कह रहे हैं। ऐसा शास्त्रों में नहीं लिखा है। शास्त्रों में तो इसे 'प्रतिष्ठित आत्मा' को सुधारने को कहा गया है। 'सुधारते रहो' ऐसा कहा गया है। इसका कोई तरीक़ा तो होना चाहिए न? सुधारने की पद्धति होती है न? जो पद्धति शास्त्रों में बताई जाती है, वह लोगों को लक्ष्य में नहीं है। बहुत सूक्ष्मरूप से बताई गई है। लेकिन वह तो शब्दों से बताई गई है न? यानी क्या है कि शब्दों से बताया गया कि मुंबई जाओ तो मुंबई में ऐसा है, यों है, वहाँ पर जूहू का किनारा ऐसा है, वैसा है, लेकिन शब्द से ही। उससे आपको क्या लाभ हुआ? अतः शास्त्र क्या बताते हैं? शब्दों द्वारा बताते हैं। वह अनुभव पूर्वक नहीं है न? शास्त्रों में अनुभव नहीं समा सकता न? अतः 'ज्ञानीपुरुष' की उपस्थिति के बिना वह स्पष्ट समझ में नहीं आ सकता। अवक्तव्य अनुभव, मौलिक तत्व के प्रश्नकर्ता : आपको सूरत स्टेशन की बेन्च पर, १९५८ में जो ज्ञान हुआ था, उस समय का अनुभव बताइए न। दादाश्री : अनुभव तो ऐसा है न, वह आपको बता कितना सकता
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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