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________________ आप्तवाणी-८ ३०५ हैं या नहीं दिखतीं? अब वास्तव में तो एक ही है। फिर भी दो दिखती हैं। हम प्लेट में चाय पी रहे हों, तो कई बार प्लेट के अंदर जो सर्कल होता है न, वह दो-दो दिखते हैं। इसका क्या कारण है? कि दो आँखें हैं, इसलिए सबकुछ डबल दिखता है। ये आँखें भी देखती हैं और वे अंदरवाली आँखें भी देखती हैं। लेकिन वह मिथ्यादृष्टि है। इसलिए ऐसा सबकुछ उल्टा दिखाती है। अगर सीधा दिखाए तो सभी उपाधियों से रहित हो जाए, सर्व उपाधि रहित हो जाए। वीतराग विज्ञान ऐसा है कि सर्व दःखों का क्षय करनेवाला है, यह विज्ञान ही ऐसा है कि सर्व दु:खों से मुक्त कर देता है। और 'विज्ञान' होता ही ऐसा है, विज्ञान हमेशा क्रियाकारी होता है। अतः इस विज्ञान को जानने के बाद विज्ञान ही काम करता रहता है, आपको कुछ भी करना नहीं पड़ता। जब तक आपको करना पड़ता है, तब तक बुद्धि है और जब तक बुद्धि है तब तक अहंकार है और अहंकार है, तब तक इसका निबेड़ा लाना हो तो भी नहीं आएगा। प्रश्नकर्ता : इस दृष्टि को बदलने की शुरूआत किस तरह से हो सकती है? दादाश्री : दृष्टि बदलने की शुरूआत तो, जब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ और उनके पास सत्संग सुनने आओ तो आपकी दृष्टि धीरे-धीरे बदल जाएगी। अभी आप सुन रहे हो तो थोड़ी-थोड़ी आपकी दृष्टि बदल रही है। ऐसे करते-करते थोड़ा परिचय हो जाए, एकाध महीने, दो महीनों का, तो दृष्टि बदलेगी। और नहीं तो 'ज्ञानीपुरुष' से कहो, 'साहब, मेरी दृष्टि बदल दीजिए।' तो एक दिन में, एक घंटे में ही बदल देंगे। _ 'ज्ञान' तो करे ओपन ‘हक़ीक़त' यह तो भ्रांति की आँटी पड़ गई है। बाकी, आत्मा को कुछ भी हुआ नहीं है। आत्मा जैसा है वैसा ही है। उस पर सिर्फ आवरण की आँटी पड़ गई है और उससे 'इगोइज़म' पैदा हो गया है। फिर सभी का,पूरा 'इगोइज़म' सभी चीज़ों का कर्ता-भोक्ता बनता है, वह दुःख भी भोगता है और सुख भी वही भोगता है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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