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________________ २८४ आप्तवाणी-८ दादाश्री : उसमें 'इगोइज़म' नहीं होता, कर्तापद खत्म हो चुका होता है प्रश्नकर्ता : ऐसा मानो न, कि 'मैं नहीं कर रहा हूँ' ऐसा उसे बरतता है, तो फिर इनको मैं थप्पड़ मारूँ और मैं कहूँ कि 'मैं नहीं मार रहा, शरीर मार रहा है। आत्मा ने नहीं मारा' तो? दादाश्री : ऐसा कह ही नहीं सकते न! 'शरीर ने मारा है' ऐसा नहीं बोल सकते। वह तो जोखिम है। 'शरीर ने मारा है, आत्मा ने नहीं मारा' ऐसा कहे, ऐसा बचाव करे तो उसे हम कहेंगे, ‘खड़े रहो, शरीर में मुझे सुई चुभोने दो', तो 'शरीर ने मारा है' ऐसा नहीं बोलेगा। ऐसा है, मारना तो एक प्रकार का डिस्चार्ज भाव है। इस 'ज्ञान' के बाद उसका ‘खुद' का चार्ज करना बंद हो जाता है, फिर डिस्चार्ज बाकी रहता है। वह उसका जोखिम नहीं रहता। ‘कर्ता मिटे तो छूटे कर्म।' कर्तापन उसका छूट गया है। प्रश्नकर्ता : 'हम कर रहे हैं, वह भाव चला जाना चाहिए। दादाश्री : बस, इतना भाव चला गया तो काम पूरा हो गया। शुद्ध-अशुद्ध, किस अपेक्षा से आत्मज्ञान हुए बिना कोई मनुष्य कहे कि 'मेरा छुटकारा होगा', तो वह बात सही नहीं है, यह तो लोग आत्मज्ञान मान बैठे हैं, उसमें दोचार वाक्य बोलते हैं कि 'मैं अनंत ज्ञानवाला हूँ, मैं अनंत दर्शनवाला हूँ' ऐसे दो-पाँच गुणों को लेकर शोर मचाते हैं। उसमें आत्मज्ञान नहीं है। पुस्तक में जो है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', उसमें ऐसा कहना चाहते हैं कि, 'तू यह सब नहीं है और तू यह है' ऐसे दृष्टि बदलना चाहते हैं, ऐसे भाव में तू आ जा, कहते हैं। लेकिन उससे कुछ आत्मा प्राप्त हो गया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आत्मा प्राप्त हो गया कब कहा जा सकता है कि आत्मज्ञान हो जाए
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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