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________________ आप्तवाणी-८ २४५ दादाश्री : हाँ, खुद को जानना, वही है। बस और कुछ नहीं । प्रश्नकर्ता : अब यदि एक वस्तु को जानना हो, तब तो उसके अंदर 'डीप' में उतरना चाहिए । इसी तरह आत्मा को जानना हो तो खुद के अंदर 'डीप' में उतरना चाहिए न? दादाश्री : अपनी तरह से सब उतरते ही हैं न ! इसी तरह जो वेदांत बनानेवाले थे, वे सभी उतरे । अंत में चार वेद बनाए, फिर कहा कि, 'दिस इज़ नॉट देट, दिस इज़ नॉट देट ।' वेद से आत्मा जाना जा सके, ऐसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : आत्मा जाना जा सके, ऐसा नहीं है, तो वह कैसा है ? दादाश्री : जाना जा सके, ऐसा भी नहीं है और बोला जा सके, ऐसा भी नहीं है। बोलना भी जोखिम है । इसके लिए चार वेदों ने भी मना किया है। वाणी से वर्णन किया जा सके, ऐसा नहीं है, वक्तव्य हो सके, आत्मा ऐसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो फिर आत्मानुभव किस तरह से होगा ? दादाश्री : अभी आपको किसका अनुभव है? प्रश्नकर्ता : अभी शून्यावस्था करने का प्रयत्न करता हूँ । दादाश्री : शून्य मतलब ? प्रश्नकर्ता : संकल्प-विकल्प नहीं आएँ, वही शून्य है । दादाश्री : आमने-सामने इन्जन को दौड़ाएँ, एक इस दिशा से आए और एक इस दिशा से आए और दोनों फुल स्पीड में हों तो क्या दशा होगी? प्रश्नकर्ता : ज़ोर से 'एक्सीडेन्ट' हो जाएगा। दादाश्री : ऐसे टकराएँगे कि इन्जन भी ऐसे खड़े हो जाएँगे ! उसी तरह अपने लोग आत्मा का ध्यान और यह सब जो करते रहते हैं न, शून्य की अवस्था, यह उसीके जैसा है । और यह तो, शून्य क्या है उसे समझे
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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