SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ आप्तवाणी-८ अधिक मज़बूत भी नहीं रह पाता! अभी इस ज़माने में नहीं रहता न। मन तो पूरा फ्रेक्चर हो चुका है। हम एक बार जागृति दे दें, फिर वह जागृति जाती नहीं। पापों के जलने से ही, लक्ष्य-जागृति बरते अब, जागृति कब आती है? पाप भस्मीभूत हो जाएँ, तब जागृति आती है। कृष्ण भगवान ने क्या कहा है कि, 'ज्ञानीपुरुष' पापों को भस्मीभूत कर देते हैं और पाप भस्मीभूत करने के बाद निरंतर जागृति रहती है और निरंतर जागृत रहना, वही अंतिम दशा है। अर्थात् मूल वस्तु, जागृति की आवश्यकता है। आपकी जागृति कम है? प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा। सतत आत्मा का अनुभव होते रहना चाहिए। दादाश्री : हाँ। सतत अर्थात् निरंतर, रात को भी नहीं भूलें। तभी जानना कि हमने कुछ प्राप्ति की है। वर्ना अन्य कुछ तो काम का ही नहीं है न! ऐसा तो अनंत जन्मों से मिलावटवाला आत्मा प्राप्त किया है। भेल भी बारह रुपये किलो और मिलावटी आत्मा भी बारह रुपये किलो, ये सब जो आत्मा का शोर मचानेवाले हैं न, वे भी सब बारह रुपये किलो के ही आत्मा की बात करते हैं। कोई ऐसा नहीं कहता कि लो, मैं आपको सच्चा आत्मा दे रहा हूँ, ले जाओ। नहीं तो समरण (नामस्मरण) देंगे कि यह समरण करते रहना। अरे, समरण तो, जब उस पर राग बैठेगा, तो समरण किया जा सकेगा। और जहाँ राग बैठे वहाँ पर सारा संसार ही है और संसार है, वहाँ पर समरण है। समरण तो होना ही नहीं चाहिए। समरण तो, जब और कोई चारा नहीं हो तब का उपाय है। वह एकाग्र रखता है आपको, लेकिन जब और कोई चारा नहीं रहे, तब। बाकी अपने आप ही निरंतर ही लक्ष्य में रहे, वह आत्मा। बाकी सब तो मिलावटवाला आत्मा है। 'एक' के बिना शून्य की स्थिति बेकार प्रश्नकर्ता : आत्मज्ञान का अर्थ खुद को जानना, वही है न?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy