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________________ आप्तवाणी- -८ प्रश्नकर्ता : उसके लिए आपके जैसे गुरु के पास जाते हैं, वहाँ पर देह और आत्मा अलग किस प्रकार से हैं, ऐसा उपदेश सुना हुआ है। बाकी हम लोगों में और आपमें बहुत फ़र्क़ है न? हम यानी संसारी, मोह-माया में रहे हुए लोग.... २३२ दादाश्री : और मैं क्या संसारी नहीं हूँ। मैं भी संसारी ही हूँ। इस दुनिया में जो संडास जाते हैं, वे सभी संसारी है। जिसे संडास जाने की ज़रूरत पड़ती है और जो संडास ढूँढते हैं, वे सभी संसारी कहलाते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन हमारे जैसों को संसार में रहकर आत्मज्ञान मिल जाए, मोक्ष हो जाए, वह कैसे ? दादाश्री : ऐसा है न, संसार दो प्रकार का है। त्यागी भी संसार है और गृहस्थी भी संसार है। दोनों प्रकार के संसार हैं । त्यागवाले को 'मैंने इसका त्याग किया है, इसका त्याग किया है' ऐसा ज्ञान बरतता है । और गृहस्थियों को ‘यह मैं ले रहा हूँ, यह मैं दे रहा हूँ, यह ग्रहण करना है' ऐसा ज्ञान उसे बरतता है, लेकिन अगर आत्मा को जान लिया तो मोक्ष हो जाएगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन क्या संसार में रहकर संसार के फर्ज़ पूरे करतेकरते भी उससे अलिप्त रहा जा सकता है ? दादाश्री : यही ‘ज्ञानीपुरुष' के पास है न । 'ज्ञानीपुरुष' के पास जो 'विज्ञान' होता है, वही देते हैं, फिर उससे संसार व्यवहार का भी सबकुछ हो सकता है और आत्मा का भी हो सकता है । 'ज्ञानीपुरुष' के पास ऐसा 'विज्ञान' होता है। मैं आपके साथ बातचीत कर सकता हूँ। यानी संसार में भी रह सकता हूँ और मैं अपने आप में भी रह सकता हूँ। दोनों कर सकता हूँ। इस संसार की जो सभी क्रियाएँ करनी होती हैं, वे भी करता हूँ। संसार में भी रह पाता हूँ और आत्मा में भी रह पाता हूँ। 'ज्ञानीपुरुष' के पास पूरा 'विज्ञान' होता है, वह शास्त्रों में नहीं होता । शास्त्रों के अनुसार तो यह सब छोड़ने पर ही छुटकारा हो सकता है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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