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________________ २२४ आप्तवाणी-८ अभी आपमें भी आत्मा और अनात्मा दोनों के धर्म अलग ही हैं, लेकिन आपमें दोनों परिणाम एक साथ निकलते हैं, इसलिए आपको बेस्वाद लगता है। दोनों के धर्म के परिणाम मिक्सचर करने से बेस्वाद हो जाता है, जब कि 'ज्ञानीपुरुष' में चेतन परिणाम अलग रहते हैं और अनात्म परिणाम अलग रहते हैं, दोनों धाराएँ अलग-अलग बहती हैं, इसलिए निरंतर परमानंद में रहते हैं। ऐसा है, खाना, पीना, नहाना, उठना, सोना, जागना, ये सभी देह के धर्म हैं। और सभी लोग देह के धर्म में ही पड़े हैं। 'खुद' 'आत्मधर्म' में एक बार एक सेकन्ड के लिए भी आया नहीं है। यदि एक सेकन्ड के लिए भी आत्मधर्म में आया होता तो भगवान के पास से खिसकता नहीं। ज्ञानांक्षेपकवंत विचारधारा काम की... प्रश्नकर्ता : जीव को विचार करना चाहिए न? दादाश्री : किसका? प्रश्नकर्ता : जो आपके पास से सुना हो या पढ़ा हो, उस पर विचारणा करनी चाहिए न? दादाश्री : हाँ। विचारणा करके उसका सार निकालना पड़ेगा न! प्रश्नकर्ता : यानी विचारणा करना ज़रूरी है? दादाश्री : हाँ, ज़रूरी है लेकिन कुछ हद तक। ऐसा है, यह जो विचारणा है न, वह आत्मा प्राप्त करने तक ही विचारणा करनी है, और उसके बाद फिर विचारणा नहीं होती। क्योंकि विचारणा तो मन का धर्म है। अर्थात् आत्मधर्म प्राप्त करने के बाद मनोधर्म की ज़रूरत नहीं है। फिर तो देहधर्म, मनोधर्म, बुद्धि के धर्म, अंत:करण के धर्म, किसी धर्म की ज़रूरत नहीं रहती। क्योंकि खुद का स्वधर्म प्राप्त हो गया! प्रश्नकर्ता : तो स्वधर्म में आने के बाद क्या-क्या करने की ज़रूरत
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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