SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ आप्तवाणी-८ दादाश्री : बंधन अवस्था कौन भोगता है? प्रश्नकर्ता : जीव ही भोगता है न? दादाश्री : आप नहीं भोगते हैं? प्रश्नकर्ता : आप मतलब कौन? दादाश्री : तब कौन भोगता है? जीव? और आप देखते रहते हो? मुँह से तो ऐसा कहते हो न कि 'मैं भोगता हूँ।' प्रश्नकर्ता : मैं अर्थात् कौन, यह सवाल है। दादाश्री : वही, अहंकार। प्रश्नकर्ता : अहंकार, वह जीव का स्वरूप ही है न? दादाश्री : जीव को तो एक तरफ़ रखो। जीव को क्या लेना-देना? जीव तो वस्तु नहीं है न! वह तो आत्मा का विशेषण है, कि भाई, ऐसा अहंकार है तब तक जीवात्मा है। अहंकार खत्म हुआ तो आत्मा मुक्त है। लेकिन अहंकार कम हो जाए और खुद के स्वरूप का भान हो जाए तो अंतरात्मा हो गया और अंतरात्मा होने के बाद में फिर परमात्मा हो जाता है। प्रश्नकर्ता : तो मोक्ष प्राप्ति का भाव, वह किसका भाव कहलाता है? दादाश्री : मोक्ष प्राप्ति का भाव, वह बँधे हुए का है। जो बँधा हुआ है, उसे मुक्त होने की इच्छा है। यानी कि यह अहंकार का भाव है। आत्मा को वैसा भाव नहीं है। आत्मा तो मुक्त ही है न! प्रश्नकर्ता : आत्मा भोक्ता नहीं है, तो वह किससे छूटना चाहता दादाश्री : छूटने का भाव उसका नहीं है। वह मुक्त ही है। यह जो बँधा हुआ है उसे छूटना है। जो बँधा हुआ है वह भोक्ता है और वही कर्ता भी है। जो कर्ता है, वही भोक्ता है, वही छूटना चाहता है!
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy