SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-८ १६७ ___ दादाश्री : नहीं, लेकिन यह सब सोना ही है ऐसा कह सकते हैं या नहीं कह सकते? भले ही सिल्ली के रूप में हो, लेकिन सोना ही है न सारा? उसी तरह से ये परमात्मा एक ही हैं। आत्मा एक ही है, लेकिन वह सोने के रूप में एक ही है, और सिल्लियों के रूप में अलग-अलग है। उनमें से प्रत्येक खुद के व्यक्तित्व-भाव को छोड़ता ही नहीं। प्रश्नकर्ता : यानी उसका अर्थ यह हुआ कि पूरा एक ही आत्मा है, ऐसा कह सकते हैं? दादाश्री : सोने के रूप में हर एक आत्मा सोना ही है, लेकिन सिल्ली के रूप में प्रत्येक आत्मा खुद के व्यक्तित्व को छोड़ता नहीं है। प्रश्नकर्ता : यानी प्रत्येक व्यक्ति का आत्मा अंत में एक ही है? दादाश्री : एक अर्थात् एक ही स्वभाव का है। आत्मा में कोई फ़र्क नहीं है। जिस तरह सिल्लियों में फ़र्क नहीं है, अंत में यह सारा सोना ही है, उसी प्रकार इस प्रत्येक आत्मा में फ़र्क नहीं है। प्रश्नकर्ता : यदि आत्मा का एक ही गुणधर्म होता तो फिर व्यक्तित्व सारे अलग-अलग क्यों हुए? दादाश्री : वे जो उनके व्यक्तित्व अलग-अलग हुए हैं, वह तो उनका काल और क्षेत्र बदलने से। हर एक का काल और क्षेत्र अलगअलग ही होता है। आप जिस क्षेत्र में बैठे हो, तो इनका वह क्षेत्र नहीं हो सकता न? अब उनके यहाँ से उठने के बाद जब आप उस जगह पर बैठते हो, तब वही क्षेत्र प्राप्त होता है, लेकिन तब तक वहाँ पर काल बदल चुका होता है। यानी कि यह जगत् प्रवाह के रूप में है। यह जगत् स्थिर नहीं है, लेकिन प्रवाह के रूप में, संसार के रूप में है। संसार अर्थात् समसरण, निरंतर परिवर्तन को प्राप्त, एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रहता। जैसे कि कोई दो लाख लोगों की सैना ऐसे जा रही हो, पाँच, दस या पंद्रह की जोड़ी में, लेकिन उनकी लाइन में ही होते हैं न सभी? वे ऐसे जा
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy