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________________ १४८ आप्तवाणी-८ कर्ता - भोक्ता, यह अवस्था है जीव की यानी जीव तो उसकी अज्ञान मान्यता है कि मैं मर जाऊँगा, इसलिए जीव तो, जब तक है तब तक जीता है, नहीं तो मर जाता है । जीए-मरे, उस अवस्था को जीव कहते हैं । और अजन्म - अमर, वह आत्मा कहलाता है, शिव कहलाता है। शुद्धात्मा शिव है । 'खुद शिव है' ऐसा समझे तो हो गया कल्याण । यह ‘मैं कर रहा हूँ, मैं भोग रहा हूँ' जब तक ऐसा भान है तब तक जीव है। जीव कर्ता - भोक्ता है, और जब से 'अकर्ता - अभोक्ता हो गया', ऐसा उसकी श्रद्धा में बैठ जाए, तब से ही वह आत्मा हो गया। प्रतीति में बैठा तब से ही आत्मा हो गया। फिर अभी रूपक में आए या न भी आए, वह बात अलग है । क्योंकि रूपक ज़रा देर से आएगा। प्रश्नकर्ता : कौन-सी अवस्था को जीव की अवस्था कहा है, यह समझ में नहीं आया? दादाश्री : कर्ता-भोक्ता, वह जीव की अवस्था है।‘यह मैं कर रहा हूँ, यह मैं भोग रहा हूँ', वह जीव की अवस्था है। 'यह मैं कर रहा हूँ। यह मैं भोग रहा हूँ', इसे विनाशी अवस्था कहते हैं । 'मैं मर जाऊँगा' ऐसा बोलता है या नहीं बोलता? और 'मैं तो अभी पंद्रह साल तक जीऊँगा ' ऐसा भी बोलता है न ? प्रश्नकर्ता : हाँ, बोलता है । दादाश्री : वही जीव है प्रश्नकर्ता : जीव खुद ही कर्ता है ? दादाश्री : ‘मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ' ऐसा उसे भान है। जो जीने की वांछना करता है और मरने की इच्छा नहीं करता, वह जीव है । आत्मा तो अकर्ता-अभोक्ता है । आपको जीव-शिव का यह भेद समझ में आया ?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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