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________________ १४० आप्तवाणी-८ हुआ, तब से ही शिव कहलाता है, वह शुद्धात्मा कहलाता है। जीव सदा संसारी ही होता है, कर्मसहित होता है और आत्मा कर्मरहित होता है। प्रश्नकर्ता : तो जीव और आत्मा, ये दोनों अलग ही हुए न? दादाश्री : जीव और आत्मा? नहीं। वही का वही आत्मा जब कर्मसहित हो, तब जीव कहलाता है और कर्मरहित हो, तब आत्मा कहलाता है। जब कर्मसहित हो तब जीता और मरता है, वही जीव है। प्रश्नकर्ता : और आत्मा तो अमर ही है न? दादाश्री : हाँ, वह तो अमर है। प्रश्नकर्ता : और जीव उससे चिपका हुआ है? दादाश्री : नहीं, चिपका हुआ नहीं है। ऐसा है, जीवात्मा, आत्मा और परमात्मा, अब इनमें जो जीवात्मा है, वह कर्मसहित अवस्था है और वह अहंकार सहित है। जो देहाध्यासरूपी है, वह जीवात्मा कहलाता है और जिसे अहंकार नहीं होता, जीना और मरना नहीं होता, वह आत्मा है। प्रश्नकर्ता : और फिर परमात्मा स्टेज कौन-सी है? दादाश्री : परमात्मा तो, उसे खुद के स्वरूप का भान हो गया तो आत्मारूप हो गया, और फिर परमात्मापन प्रकट होता ही रहता है। जब 'फुल्ली' प्रकट हो जाता है, तब 'फुल' परमात्मा बन जाता है। यानी जब तेरहवाँ गुणस्थान पूरा हो गया, केवळज्ञान हो गया, फिर तो 'फुल' परमात्मा ही हो गया! यानी कि यह जो जीव है न वह आत्मा की ही अवस्था है, लेकिन भ्रांत अवस्था है और उसे जीव क्यों कहा? कि जो जीता है और मरता है, उस अवस्था को जीव कहते हैं। और आत्मा शुद्ध चेतनरूप है, वह खुद ही परमात्मा है, लेकिन ऐसा भान होना चाहिए। जब तक भान नहीं हो जाता, तब तक 'मैं आत्मा हूँ' इतनी भी ख़बर नहीं होती। 'मैं तो जीव हूँ' अभी तक ऐसा ही भान है। आत्मा की भ्रांत अवस्था में ही 'मैं हूँ' यानी कि 'मैं जी रहा हूँ, मैं मर जाऊँगा' ऐसा मानता है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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