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________________ आप्तवाणी-८ १३९ है। आपको समझ में आया? आपको यदि जुदा चाहिए, जुदा करना हो तो जुदा कर दूंगा। बाकी यह भौतिक जगत् है, वही जीवात्मा है। जिसमें से यह टेम्परेरी सुख ढूँढता है, 'रिलेटिव' सुख ढूँढता है, वह सब भौतिक जगत् है। जहाँ से ढूँढता है, वह सारा ही भौतिक जगत् है और ढूँढनेवाला भी भौतिक जगत् है। इतना यदि समझ में आ जाए तो काम हो जाए। प्रश्नकर्ता : शरीर में जीव भी आ गया, शरीर में आत्मा भी आ गया और शरीर में भौतिक जगत् भी आ गया, तीनों का मिश्रण आ गया। दादाश्री : सबकुछ आ गया। इस शरीर के अंदर तो पूरा ब्रह्मांड आ गया, कुछ भी बाकी नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो अब इसे हम जुदा किस तरह से समझें? इसे जुदा रखकर किस तरह से समझें? दादाश्री : जुदा करने के लिए साइन्टिस्ट' बनना पड़ेगा। इस अंगूठी में सोना, तांबा और दूसरी सभी दो-तीन तरह की धातुएँ इकट्ठी हो गई हों, तो उन्हें इस मिश्रण में से अलग करना हो तो किस तरह से जुदा किया जा सकता है? कोई भी आदमी जुदा कर सकता है? जो इसका जानकार होगा, वही इन्हें जुदा कर सकेगा। ऐसे ही, इसमें भी जो जानकार होगा, वही जुदा कर सकेगा। बाकी, अन्य तो कोई जुदा नहीं कर सकेगा न! बाकी अगर खुद इसमें माथाकूट करने जाएगा न, तो अनंत जन्मों की माथाकूट बेकार जाएगी और बल्कि चुपड़ने की दवाई पी जाएगा तो मर जाएगा। चुपड़ने की दवाई पी जाए, तो उसमें भगवान का क्या दोष? जीव और आत्मा, नहीं हैं भिन्न न ही अभिन्न प्रश्नकर्ता : यह बताइए कि जीव और आत्मा में क्या फ़र्क है? दादाश्री : जब तक संसारदशा में है, तब तक जीता है, मरता है; तब तक जीव कहलाता है। संसारदशा में यानी कि 'मैं संसारी हूँ' और जब तक संसारदशा को खुद की दशा मानता है, तब तक वह जीता है और मरता है, तभी तक वह जीव कहलाता है। और जीने-मरने का बंद
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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