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________________ १३२ आप्तवाणी-८ दादाश्री : हाँ, अहंकार आवरण है ज़रूर लेकिन आवरण को अहंकार नहीं कहा गया है। अन्य बहुत सारी चीज़ों का भी आवरण है। सिर्फ अहंकार अकेला ही नहीं है। खुद के स्वरूप का अज्ञान, वही मुख्य आवरण है। एक ही बार 'खुद कौन है', ऐसा हमारे पास से जान जाओ, फिर अज्ञान चला जाएगा। फिर किसी तरह की परेशानी नहीं रहेगी। प्रश्नकर्ता : ब्रह्मप्राप्ति का फल क्या है? दादाश्री : ब्रह्मप्राप्ति का फल निरंतर परमानंद स्थिति ! देह होती है, फिर भी जनक विदेही जैसी स्थिति रहती है, ब्रह्ममय स्थिति!! संसार फिर उसे छूता नहीं है, स्पर्श नहीं करता। कोई फूल चढ़ाए तो वह भी स्पर्श नहीं करता और पत्थर मारे तो भी स्पर्श नहीं करता। भेद, ब्रह्मदर्शन-आत्मदर्शन का प्रश्नकर्ता : ब्रह्मदर्शन और आत्मदर्शन में क्या फ़र्क है? दादाश्री : आत्मदर्शन और ब्रह्मदर्शन में बहुत फ़र्क है। ब्रह्मदर्शन से भी आगे जाना पड़ेगा। जहाँ पर त्रिकाली भाव हुआ न, उसे ब्रह्मदर्शन कहा है, त्रिकालीभाव। और आत्मा तो परमात्मा ही है, यदि कभी मूल स्वरूप में आ गया तो परमात्मा ही है। और ब्रह्म भी परब्रह्म बन जाता है, क्योंकि त्रिकाली भाव में आ चुका है न। तीनों ही काल में अस्तित्व है! ___ पहले ब्रह्मनिष्ठ, फिर आत्मनिष्ठ इस ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान में भी फ़र्क है। ब्रह्मज्ञान तो आत्मज्ञान का दरवाज़ा है। वह जब ब्रह्मज्ञान में प्रविष्ट होता है, उसके बाद आत्मज्ञान होता है। प्रश्नकर्ता : इन दोनों के बीच में क्या फ़र्क है? दादाश्री : यह जो किसीको ब्रह्मज्ञान होता है, वह सब तो साधनों के परिणामस्वरूप खुद के स्वरूप पर एकाग्रता होती है। लेकिन स्वरूप का क्या है? वह भान नहीं हो पाता। स्वरूप का भान तो आत्मज्ञान हो
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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