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________________ ज्ञान, दर्शन, शक्ति, सुख ऐसा अनंत गुणधामी परमात्मा का स्वरूप है और वह, वह 'खुद' ही है परन्तु खुद के स्वरूप का भान होने के बाद ही ये सभी गुण निरावृत होते हैं! चेतन और जड़ का भेद उनके गुणधर्मों पर से जाना जा सकता है। ज्ञान-दर्शन, देखना-जानना, वह चैतन्य स्वभाव है, जो अन्य किसीमें नहीं है। जीव के अस्तित्व पर आशंका करनेवाले 'मेरे मुँह में जीभ नहीं है', ऐसे बोलनेवाले की तरह खुद के, वस्तु-अस्तित्व को स्वयं ही अनावृत कर देते हैं! जिसे जीव पर शंका उपजती है, वही खुद जीव है! जड़ को वह शंका होगी? अँधेरे में भी मुँह में रखे हुए श्रीखंड में रही हर एक चीज़ को जो जानता है, वह जीव है! ज्ञानतंतु तो खबर पहुँचाते हैं, परन्तु जिसे पता चलता है, वह जीव है! जो सदा ही सुख का चाहक और शोधक रहा है, वही जीव है। जहाँ लागणी (भावुकतावाला प्रेम, लगाव) है वहाँ पर आत्मा है, जहाँ पर लागणी नहीं है वहाँ पर आत्मा नहीं है। फिर भी आत्मा में लागणी नहीं है, जिसे लागणी होती है, वह पुद्गल है। हिलता-डुलता है, बोलता है, खाता है, पीता है वह चेतन नहीं है, परन्तु जहाँ कुछ भी ज्ञान है या अज्ञान है, दया या लागणी है, वहाँ पर चेतन है। आत्मा का स्थान पूरे देह में व्याप्त है। जहाँ दुःख का संवेदन है वहाँ आत्मा है। मात्र नाखून और बालों में ही आत्मा नहीं है। हृदय में तो स्थूल मन का स्थान है। जब कि सूक्ष्म मन दोनों भृकुटियों के बीच में ढाई इंच अंदर है। आत्मा के संकोच-विकासशील स्वभाव के कारण जब देह का कोई भी अंग कटता है या एनेस्थीसिया दिया जाता है, तब उतने भाग में से आत्मा खिसक जाता है! जीवन की तीनों अवस्थाओं में, अरे! अनंत जन्म-मरण की १४
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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