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________________ आप्तवाणी-८ कोयले के व्यापारी से कहें, तब वह कहता है, 'हमें लकड़े का क्या करना है?' यानी उसे कोई नहीं लेता, उसका कोई ग्राहक ही नहीं है, लकड़ेवाला भी नहीं लेता और कोयलेवाला भी नहीं लेता । ऐसे ही यह पूरा जगत् अर्धदग्ध प्रकार से चल रहा है। १०४ संपूर्ण अज्ञान जान ले, तब भी आत्मा मिल जाए I और पूरे दिन चिंता में ही समय बिताता है । और 'ज्ञान' तो वहाँ अटारी पर। अरे! अज्ञान होता तो भी अच्छा था । इस हिन्दुस्तान में एक भी ऐसा आदमी मेरे पास ढूँढकर लाओ कि जिसे अज्ञान हुआ है। अज्ञान हुआ होता तो भी मैं उसे कहता कि, 'भाई, यह किनारा समझ गया है, इसलिए उस किनारे को समझ जाएगा ।' लेकिन उस किनारे को भी नहीं समझा है। जिस किनारे पर खड़ा है, वहाँ का भी उसे भान नहीं है कि कौन-से किनारे पर है। यानी कि अज्ञानी भी नहीं बन पाया । या तो गेहूँ को पहचान ले या फिर कंकड़ को पहचान ले, तो दोनों को पहचान जाएगा। इसलिए चार वेदों ने कहा है न, कि 'दिस इज़ नॉट देट, दिस इज़ नॉट देट, न इति, न इति ।' लेकिन उस अज्ञान को भी पूरा नहीं किया । यदि पूरा किया होता न, 'न इति' कहने की बारी ही नहीं आती, तो ज्ञान आकर खड़ा रहता। लेकिन वहाँ से फिर थक गए, यह 'न इति, न इति' कहकर। वेद तो ज्ञान और अज्ञान का विवरण करते हैं । लेकिन अज्ञान यदि पूरा होने दिया होता तो आत्मा वहाँ पर हाज़िर हो जाता, लेकिन उसे पूरा नहीं होने दिया। यथार्थ रूप में जगत् सभी तरह की बातचीत करो, खुले दिल से, यह जगत् ‘जैसा है वैसा' यहाँ पर बताया जाएगा। 'जैसा है वैसा'। 'नहीं है' उसे 'ना' कहेंगे और 'है' उसे 'है' कहेंगे। जो 'नहीं है' उसे हमारे द्वारा 'है' नहीं कहा जा सकता। और जो 'है' उसे 'नहीं' नहीं कहा जा सकता। एक-एक शब्द के लिए हम ज़िम्मेदार हैं । और ठेठ तक की बात हमारे पास है, क्योंकि एक सेकन्ड के लिए भी इस देह का मैं मालिक नहीं बना हूँ, इस मन
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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