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________________ आप्तवाणी-८ गया। ६५ प्रश्नकर्ता : नहीं, संकल्प नहीं । लेकिन वह पूरा द्वैतभाव प्रकट हो दादाश्री : नहीं, भगवान में द्वैतभाव नहीं होता और भगवान में अद्वैतभाव भी नहीं होता । द्वैत और अद्वैत, वह तो द्वंद्व है और भगवान द्वंद्वातीत हैं। प्रश्नकर्ता : लेकिन यह द्वंद्व है, तभी सृष्टि का सर्जन है न? दादाश्री : हाँ, यह द्वंद्व ही सृष्टि है। सृष्टि का मतलब ही द्वंद्व और द्वंद्वातीत हो गया तो काम पूरा हो गया। अनादिसांत से सादिअनंत की ओर ऐसा है न ‘इस जगत् की आदि' जैसी चीज़ है नहीं और अंत जैसी भी चीज़ नहीं है। लोग बुद्धि से 'इसकी आदि कब?' ऐसा पूछते रहते हैं। क्योंकि खुद की आदि हुई है ऐसा मानता है, इसलिए इस जगत् की भी आदि होनी चाहिए, ऐसा पूछता है I 'इस जगत् की आदि' जैसा शब्द है नहीं और अंत जैसा भी शब्द नहीं है। यह संसारप्रवाह अनादि से है, लेकिन अंतवाला है । तब कोई पूछे, ‘किस अपेक्षा से अंतवाला है?' तब कहेंगे, "इस संसारप्रवाह में जीव भ्रांति में बहते रहते हैं, लेकिन उसे यदि 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो उसकी भ्रांति का वहाँ पर अंत आ जाता है।" यानी कि अनादि से जो भ्रांति चली आई है, उसका अंत आ जाता है और सम्यक्त्व का उदय होता है। स- -आदि, का मतलब सादि होता है, 'वह सम्यक्त्व कब तक रहेगा?' तब कहते हैं, जब तक उसे केवळज्ञान नहीं हो जाए तब तक उसका अंत नहीं होगा । यह सादि सांत कहलाता है, स-आदि और स- अंत ! और वहाँ पर मोक्ष में फिर से स-आदि हुई, और अनंतकाल तक रहेगा । इसलिए उसे सादिअनंत कहा है। यानी पहले अनादि-सांतवाला भाग, फिर सादि-सांतवाला भाग, फिर सादि-अनंतवाला भाग ! अर्थात् इस जगत् में आदि जैसी कोई वस्तु है ही नहीं, अंत जैसी
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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