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________________ लक्ष्मी की चिंतना (२) संतुलनभंग मत करो। नहीं तो आप गुनहगार हो। अपने आप सहज रूप से आए, उसके लिए आप गुनहगार नहीं हो! सहज तो पाँच लाख आएँ या पचास लाख आएँ। लेकिन फिर आने के बाद लक्ष्मी जी को रोककर नहीं रखना चाहिए। लक्ष्मी तो क्या कहती है? हमें रोकना मत। जितनी आई उतनी दे दो। की हुई मेहनत कब काम की? प्रश्नकर्ता : हमारे विचार ऐसे हैं कि व्यापार में इतने अधिक ओतप्रोत हैं कि लक्ष्मी का मोह जाता ही नहीं। उसीमें डूबे हुए दादाश्री : उसके बावजूद पूर्ण संतोष भी नहीं होता न! पच्चीस लाख इकट्ठे करूँ, पचास लाख इकट्ठे करूँ, ऐसा रहा करता है न? ऐसा है, पच्चीस लाख इकट्ठे करने में मैं भी पड़ा रहता, लेकिन मैंने तो हिसाब लगाकर देखा कि ये यहाँ पर आयुष्य का एक्सटेन्शन नहीं मिलता। हर एक चीज़ का एक्सटेन्शन होता है न? दूसरी जो मुद्दत होती है न, उसे बढ़ा देते हैं, एक्सटेन्शन कर देते हैं, लेकिन आयुष्य में एक्सटेन्शन नहीं होता न! तो फिर हम क्यों परेशान हों? सौ के बदले हज़ारेक वर्ष जीना होता, तो समझो ठीक है कि मेहनत की हुई काम की। यह तो किस घड़ी हैं या नहीं, उसका कुछ ठिकाना नहीं, और यह सब आप करते हो या कोई करवाता है? आपको क्या लगता है? कमाई-नुकसान, सत्ता किसकी? प्रश्नकर्ता : सब हम ही करते हैं न? कोई करवाता नहीं है। दादाश्री : नहीं, यह कोई और ही करवाता है और आपके मन में भ्रांति है कि मैं कर रहा हूँ। यह तो, किसी को रुपये देते हो, वह भी कोई करवा रहा है। और नहीं देते, वह भी कोई करवा रहा है। बिज़नेस है, वह भी कोई करवा रहा है।
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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