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________________ आप्तवाणी-७ इस संसार का वर्णन यदि 'ज्ञानीपुरुष' से सुने तो उसे सुनते ही पागल हो जाए! यह तो अंधेरे में सबकुछ चलता रहता है । फिर भी संसार का दोष नहीं है। संसार तो बेचारा अच्छा है, आपकी समझ ही उल्टी है। उसमें यह संसार क्या करे? आप ही मान बैठे हो कि 'मैं ही चंदूभाई हूँ, ' ' मैं ही ब्राह्मण हूँ' ऐसा सब उल्टा मान बैठे, उसमें संसार का क्या दोष? संसार में तो ये (ज्ञान प्राप्त महात्मा) सभी रहते ही हैं न? और मैं क्या संसार से बाहर निकल गया हूँ? हम भी कहते हैं कि 'इस सेठ का मैं चाचा हूँ' लेकिन जिस तरह आप वह कहते हो उस तरह से हम नहीं कहते। हम व्यवहार से कहते हैं । यह तो व्यवहार से पहचानने का साधन है । अन्य कोई साधन नहीं है। वास्तव में वह चाचा हैं ही नहीं। यानी वास्तव में यदि चाचा होते न, तो हमें कोई चाचा बनने ही नहीं देता। यानी वास्तव में चाचा होते ही नहीं, यह तो व्यवहार में पहचानने का साधन है कि ये मेरे चाचा हैं, ये मेरे मामा हैं लेकिन वह वास्तविक रूप से नहीं है। आपको पसंद आई ये सारी बातें ? इस तरह माया की मार खा-खाकर दम निकल गया । माया यानी कौन? खुद के स्वरूप की अज्ञानता, वही माया । यदि यह अज्ञानता चली जाए तो संसार दुःखदायी नहीं है। संसार कष्टदायी नहीं है। संसार किसी भी प्रकार से बाधक हो सके, ऐसा नहीं I है । मैं व्यापार भी करता हूँ, मुझ पर सेल्सटैक्स की, इन्कमटैक्स की तलवारें लटकती हैं । कोई कहेगा कि, 'ये तो साधु हो चुके हैं, और हम तो संसारी हैं ।' तो आप ऐसी जुदाई मानना मत। मैं आपके जैसा ही हूँ। फिर भी ऐसे पद में रहा जा सकता है, ऐसा आप मुझे देखो तो ऐसी हिम्मत आएगी कि ये संसारी हैं तो हमसे भी क्यों नहीं रहा जा सकता? जबकि उन संन्यासियों ने संसार छोड़ दिया हो तो हमारे मन में ऐसा लगता है कि, 'भाई, इन्हें तो इन्कमटैक्स नहीं, सेल्सटैक्स नहीं, खाने-पीने की कोई मुश्किल नहीं, वे तो कर सकते हैं। इनके जैसा हमसे नहीं
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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