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________________ क्रोध की निर्बलता के सामने (१८) २८५ वह अलग। मन में क्लेश हो जाता है, वह अलग। यानी इस व्यापार में तो एक तो प्याले गए वह नुकसान; दूसरा, यह क्लेश हुआ वह नुकसान और तीसरा, नौकर के साथ बैर बँधा वह नुकसान! नौकर बैर बाँधता है कि 'मैं गरीब हूँ,' इसीलिए ये मुझे अभी ऐसा कह रहे हैं न! लेकिन वह बैर छोड़ेगा नहीं और भगवान ने कहा है कि बैर किसी के भी साथ मत बाँधना। शायद कभी प्रेम बँधे तो बाँधना, लेकिन बैर मत बाँधना। क्योंकि प्रेम बँधेगा तो वह प्रेम अपने आप ही बैर को खोद डालेगा। प्रेम की कबर तो बैर को खोद डाले ऐसी है, लेकिन बैर की कबर कौन खोदेगा? बैर से तो बैर बढ़ता ही रहता है। इस प्रकार निरंतर बढ़ता ही रहता है। बैर के कारण ही तो यह भटकन है सारी! ये मनुष्य किसलिए भटकते हैं? क्या तीर्थंकर नहीं मिले थे? तब कहे, 'नहीं, तीर्थंकर तो बहुत सारे मिले थे। वहाँ गए थे, वहाँ बैठे थे। उनकी बात सुनी, देशना भी सुनी, लेकिन कुछ हुआ नहीं।' किस-किस बात में अड़चनें आती हैं? कहाँ-कहाँ आपत्ति होती हैं? उन आपत्तियों को खत्म कर दो न! यदि आपत्ति होती है वह संकुचित दृष्टि है। तो 'ज्ञानीपुरुष' लोंग साइट दे देते हैं। उस लोंग साइट के आधार पर सबकुछ 'ज्यों का त्यों' दिखता
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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