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________________ २३४ आप्तवाणी-७ बेकार के परिग्रह, वगैरह बंद कर दो, तो सबकुछ ठीक हो जाएगा। यह तो एक तरफ परिग्रही, संपूर्ण परिग्रही रहना है और दूसरी तरफ जनसेवा करनी है, ये दोनों एकसाथ किस तरह हो सकेगा? सेवा-कुसेवा, प्राकृत स्वभाव __ आप यह जो सेवा कर रहे हो, वह प्रकृति स्वभाव है और कोई व्यक्ति कुसेवा करता है तो, वह भी प्रकृति स्वभाव है। इसमें आपका पुरुषार्थ नहीं है और उसका भी पुरुषार्थ नहीं है, लेकिन मन से ऐसा मानते हैं कि 'मैं कर रहा हूँ।' अब 'मैं कर रहा हूँ' वही भ्रांति है। यहाँ पर 'यह' ज्ञान देने के बाद भी आप सेवा तो करोगे ही, क्योंकि ऐसी प्रकृति लेकर आए हो, लेकिन वह सेवा फिर शुद्ध सेवा होगी। अभी शुभ सेवा हो रही है। शुभ सेवा यानी बंधनवाली सेवा, सोने की बेड़ी, लेकिन बंधन ही है न! इस ज्ञान के बाद सामनेवाले व्यक्ति को भले ही कुछ भी हो लेकिन आपको दुःख नहीं होगा और उसका दुःख दूर हो जाएगा। इसके बाद आपको करुणा रहेगी। अभी तो आपको दया रहती है कि बेचारे को कैसा दुःख हो रहा होगा, कैसा दुःख हो रहा होगा! उस पर आपको दया आती है। वह दया हमेशा हमें दुःख देती है। जहाँ दया होती है, वहाँ पर अहंकार रहता ही है। दया भाव के बिना प्रकृति सेवा करती ही नहीं और इस ज्ञान के बाद आपको करुणा भाव रहेगा। .... कल्याण की श्रेणियाँ ही भिन्न ये जो समाज कल्याण करते हैं, वह जगत् कल्याण नहीं कहलाता। वह तो एक सांसारिक भाव है, वह सब समाज कल्याण कहलाता है। वह जितना जिससे हो पाए उतना करते हैं, वह सब स्थूल भाषा है। और जगत् कल्याण करना वह तो सूक्ष्म भाषा, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भाषा है। सिर्फ ऐसे सूक्ष्मतम भाव ही होते हैं या फिर उसके छिंटे ही होते हैं।
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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