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________________ २३० आप्तवाणी-७ अभी किसलिए परेशान कर रहे हो? अब आपको यह जो दु:ख हुआ वह माना हुआ है। वह कोई आपको दुःख देने के लिए नहीं आया था। वह तो कह रहा था कि, 'चलो साहब, भोजन के लिए!' प्रश्नकर्ता : यदि हमें दूसरों को सुख देने की इच्छा हो तो वह क्या है? दादाश्री : दूसरों को सुख देने की इच्छा आपको रखने की क्या ज़रूरत है? दूसरों को सुख देने की इच्छा हो ऐसा कहते हो, तो आप उस सुख के दाता हो, ऐसा? । प्रश्नकर्ता : और दूसरों के सुख से ईर्ष्या हो, वह क्या है? वह भी मोल लिया हुआ दुःख कहलाएगा न? दादाश्री : ईर्ष्या तो मोल लिया हुआ दुःख है। ये सब मोल लिए हुए दुःख हैं। वास्तव में ज़रा सा भी दु:ख नहीं है। मुझे कोई दुःख नहीं देता। क्योंकि मैं दुःख मोल नहीं लेता हूँ। नहीं तो दुःख तो होते ही रहेंगे, ठोकरें तो लगती ही रहेंगी, और जगत् तो बोलता ही रहेगा। यह सब चलता ही रहेगा, लेकिन जो मोल ले उसे दुःख। प्रश्नकर्ता : और जो ये दु:ख देते हैं वे तो नया ही बीज डालते हैं न? दादाश्री : वह हमें नहीं देखना है, वह तो जगत् का क्रम ही है ऐसा! क्रम ही है कि सुख और दुःख के लेन-देन का नैमित्तिक भाव है। दुःख, खुद का ही मिटाओ न! प्रश्नकर्ता : सामनेवाले को दुःख हो रहा हो तो हमें भी दुःख होगा न?
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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