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________________ ले उसे दुःख!' इस सोने की कटारी का उपयोग करना तो संपूर्ण अकर्तापद में पहुंच चुके 'ज्ञानीपुरुष' ही जानें! 'मुझसे गलत सहन नहीं होता' कहनेवाले कितने ही देखे जाते हैं। लेकिन गलत करनेवाला हमें ही क्यों मिला? इसकी कोई जाँच करता है? फिर भी सामनेवाले को शांति से समझाया जा सकता है कि ऐसा गलत नहीं करना चाहिए।' वास्तव में जनसेवक तो वह है कि जिसे किंचित्मात्र भी कीर्ति की, मान की, नाम की, लक्ष्मी की या किसी भी चीज़ की भीख नहीं हो, खुद अपरिग्रही होता है। जो संपूर्ण परिग्रही है, वह भला जनसेवा क्या करेगा? सेवा करते हैं, उसे भी ज्ञानी 'प्रकृति स्वभाव है, पुरुषार्थ नहीं, प्रारब्ध है।' ऐसा कहकर सेवा की पूँजी की कमाई के फूले हुए गुब्बारे की हवा निकाल देते हैं! स्वरूपज्ञान के बाद करुणाभाव प्रकट होता है, वही सच्ची चीज़ है। ज्ञानीपुरुष ने जीवन का ऐसा तो कैसा लक्ष्य निश्चित किया होगा कि जिससे उन्हें अभ्युदय और आनुषंगिक फल बरतते रहते हैं? "पूरा जगत् परमशांति को प्राप्त करे और कुछ मोक्ष को प्राप्त करें!" - दादाश्री इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए 'ज्ञानीपुरुष' रास्ता बताते हैं कि इसमें कुछ भी नहीं करना है, मात्र हेतु निश्चित करना है और वह हेतु अपने लक्ष्य में रहना ही चाहिए, अन्य कुछ भी लक्ष्य में नहीं रहना चाहिए। १६. बॉस-नौकर का व्यवहार अपने अंडरहैन्ड को डाँटना नहीं चाहिए। जब तक हम किसी को डाँटते रहेंगे, तब तक हमें डाँटनेवाले मिल जाएँगे! ऊपरी को या अन्डरहैन्डवाले को, किसी को भी हमसे दुःख न हो ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए! जो ईमानदार है, उसके साथ में और कोई नहीं तो कुदरत का न्याय तो हमेशा है ही! 26
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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