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________________ पसंद, प्राकृत गुणों की (१४) ठोकरें लगें, तब समझ में आता है। नहीं तो समझ में आता ही नहीं न! इच्छा हो और मिल जाए, उसी से तो ये लोग चढ़ बैठे हैं। इच्छा के अनुसार मिला तभी तो यह दशा हो गई बेचारों की! जो पुण्य था वह तो खर्च हो गया और बल्कि फँस गया और अहंकार पागल हो गया ! अहंकार को बढ़ते देर नहीं लगती । फल कौन देता है? पुण्य देता है, जबकि मन में क्या समझता है कि 'मैं ही कर रहा हूँ ।' ऐसे अहंकारी को तो मार पड़े, वही अच्छा है। ठोकरें खा-खाकर उसे जो प्राप्ति होगी, उसी में फायदा है। २११ इच्छा होते ही तुरंत मिल जाए तो घर में पैर ऊपर ही रखता है, पिता को भी कुछ नहीं मानता और न ही किसी और को मानता है। अतः यदि इच्छा होते ही मिल जाए तो समझना कि अधोगति में जाएगा, उसका दिमाग़ बढ़ते-बढ़ते घनचक्कर हो जाता है। थोड़े-बहुत लोगों को इच्छा के अनुसार मिला है, वे तो अभी पाँच-दस लाख के फ्लेट में रहते हैं और उन सभी की जानवरों जैसी दशा हो गई है । फ्लेट होता है दस लाख का, लेकिन वह उसके लिए हितकारी नहीं है, लेकिन उनकी यह स्थिति तो दया रखने जैसी है। मुश्किल में लालच, क्यों? पूरी जिंदगी भय नहीं, घबराहट नहीं। संसार में जो कुछ भी होना होगा, उसमें कुछ भी 'व्यवस्थित' से बाहर नहीं होगा । कोई हाथ देखकर कहे कि, 'आपकी लाइफ में घात है ।' तब कहना कि, ‘एक हो, दो हों या चार हों, उसमें क्या हर्ज है मुझे?' क्योंकि हम लोग जानते हैं कि यह जो घात है, वह तो 'व्यवस्थित’ के हाथ में है। ज्योतिषी उसमें क्या करेगा? और जिसे 'व्यवस्थित ' के बारे में मालूम नहीं हो, वह तो 'घात है' सुनते ही अंदर चौंक जाएगा कि कितनी उम्र में है ? इन ज्योतिषी लोगों की दुकानदारी तो योजनाबद्ध है। ज़रा मुँह ढीला देखा कि तुरंत ही
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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