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________________ १३६ आप्तवाणी-७ हँसकर शादियों में भी जाती हैं! इसका क्या कारण है? अभानता है। अब ऐसे अभान के साथ हम कहाँ रोने बैठे? हमें तो वहाँ पर बस नाटक करना पड़ता है। वहाँ पर हम कहीं हँस नहीं सकते। हँसें तो मूर्ख कहलाएँगे, लेकिन दिखावा तो करना पड़ेगा न? नाटक में जैसे अभिनय करते हैं, वैसा अभिनय करना पड़ेगा। आँखों में से पानी नहीं आ रहा हो तो बाथरूम में जाकर ज़रा पानीवाली आँखें करके आना; लेकिन आप तो भाई नाजुक हैं, इसलिए बहुत हुआ। थोड़ा कहते ही आँख में से पानी निकलने लगा। इस जगत् का सारा खोखलापन मैं देख चुका हूँ, क्योंकि मैं सच्चा पुरुष था। मुझे ऐसा लौकिक रास नहीं आता था। ऐसा लौकिक तो रास आता होगा? रोना मतलब रोना ही आना चाहिए, लेकिन फिर मैंने देखा कि यह जगत् घोटालेवाला है। क्या यह व्यापार सही है? आपको कैसा लगता है? लेकिन फिर यह झूठा भी नहीं है। यह तो लौकिक है। हमें भी वैसा लौकिक ही करना है। लौकिक यानी जैसा व्यवहार लोग अपने साथ करें, वैसा ही हमें भी करना चाहिए। आपको ऐसा लौकिक अच्छा लगता है? हम जब छाती कूटते हैं तो हल्के हाथ से करते हैं, नहीं तो चोट लगेगी न? लेकिन लोग कहेंगे कि हमने छाती पीटी। यानी ऐसा है यह व्यवहार। ये लोग रोना-धोना करते हैं, छाती कूटते हैं, उस घड़ी यदि हम उन्हें देखने जाएँ, तो ऐसे कूटते हैं। हमें ऐसा लगता है कि यह अभी छाती तोड़ देगा, लेकिन नहीं तोड़ता, बहुत पक्के लोग हैं! इसी को लौकिक कहते हैं न? उनमें यदि कोई कच्चा हो तो मारा ही जाएगा। लेकिन लौकिक में तो दूसरे दिन उसे सिखानेवाले कोई गुरु मिल जाएँगे कि 'ऐसा तो कहीं करना चाहिए? देख, इस तरह करना चाहिए!' ताकि वह फिर से वैसी भूल नहीं करे। यानी छाती पर ऐसे मारते ज़रूर है, हमें ऐसा दिखता है, लेकिन चोट नहीं लगती उसे। लौकिक यानी व्यवहार। सब रोते
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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