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________________ ५४ आप्तवाणी-६ प्रश्नकर्ता : इन गायों-भैंसों को पता चलता होगा कि मनुष्य ऐसे टेढ़े हैं? दादाश्री : नहीं, वे मनुष्य में से ही बने हैं। मनुष्य के साथ ही साथ टच में रहती हैं बेचारी । ये गायें - भैंसे तो संबंधियों की ही बेटियाँ आई होती हैं! और कुत्ता घर में बैठे-बैठे भौंकता है, वह भी संबंधी ही आए होते हैं। प्रश्नकर्ता : यह जीव मर जाए, फिर तुरंत जन्म ले लेते हैं ? दादाश्री : तुरंत ही, उसमें देर ही कितनी ! इसमें कोई जन्म देनेवाला भी नहीं है और कोई लेनेवाला भी नहीं ! प्रश्नकर्ता : यानी यह सारा स्वयं - संचालित है ? दादाश्री : हाँ, यह सारा स्वयं-संचालित है। स्वभाव से ही संचालित है। जैसे पानी का स्वभाव नीचे जाने का है, वह नीचे ही जाएगा । उसे आप चाहे जितना करो, फिर भी स्वभाव बदलेगा नहीं । प्रश्नकर्ता : हमारी प्रकृति है, तो कुछ प्रकृतियाँ ऊँची जाती हैं और कुछ नीची जाती हैं। दादाश्री : उन सभी प्रकृतियों को देखना ही है। यह मोटर की लाइट है, वह बांदरा ( मुंबई की एक जगह ) की खाड़ी के कीचड़ को छुए, खाड़ी के पानी को छुए, खाड़ी की गंध को छुए, परंतु लाइट को कुछ भी छूता नहीं है! वह लाइट कीचड़ को छूकर जाती है परंतु कीचड़ उसे नहीं छूता। गंध नहीं छूती, कुछ भी नहीं छूता । हमें भय रखने का कोई कारण ही नहीं है कि लाइट कीचड़वाली हो जाएगी, गंधवाली हो जाएगी या पानीवाली हो जाएगी। यह लाइट यदि ऐसी है तो आत्मा की लाइट कितनी अच्छी होगी ! आत्मा लाइट स्वरूप ही है ! प्रश्नकर्ता : हम प्रकृति के साथ तन्मयाकार हो गए हैं, तो हमारा जो मिश्रचेतन है, उसे तो गंदगी छूती है न? दादाश्री : उसे छुए उसे हमें ‘देखना' है! प्रश्नकर्ता : परंतु उसका हम पर असर होता है, उसका क्या?
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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