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________________ [७] प्रकृति के साथ तन्मय दशा में आत्मप्रकाश की निर्लेपता मूल बात को समझो कि यह हकीकत क्या है? और मूल बात क्या है? इतना ही जानने के लिए यह मनुष्यत्व है । इसमें 'अपना क्या और क्या अपना नहीं है' इतना जान लो । फिर रोना-धोना करना हो तो करो । अपनी खुद की दुनिया में हमने ही भूल खाई है। पराई दुनिया में आए होते तो बात अलग थी ! प्रश्नकर्ता : दुनिया अपनी कहाँ से है ? दादाश्री : तो किसकी है? अपनी का अर्थ इतना ही कि अपना कोई मालिक नहीं है और अपना कोई ऊपरी नहीं है। दुनिया अपनी ही है। इस दुनिया को देखने का लाभ उठाओ, जानने का लाभ उठाओ तो सही है। प्रश्नकर्ता : उसे देखने-जानने में हम फिर से अंदर घुस जाते हैं और उलझ जाते हैं । दादाश्री : जो उलझ जाता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है। फिर भी ‘यह मेरा स्वरूप है, मैं उलझ गया' ऐसा मानता है, वहीं पर भूल खाता है। 'देखे-जाने' तो कुदरत कैसी सुंदर दिखेगी ! परंतु उसे भीतर चिंता होती है, इसलिए कुदरत को देखता ही नहीं है न! बाग-बगीचे बहुत सुंदर होते हैं, परंतु उसे ज़हर जैसे लगते हैं । जगत् हमेशा मनोहारी ही है। ये गायें-भैंसे कितनी अच्छी दिखती हैं ! परंतु इन मनुष्यों का संग करते हैं इसलिए गायों-भैंसों को भी परेशानी आती है ।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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