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________________ आप्तवाणी-६ अर्थी में अकेले ही जाना होता है न! फिर ये बिना काम के झंझट सिर पर लेकर कहाँ फिरें? जन्म पहलां चालतो ने मूआ पछी चालशे, अटके ना कोई दि' व्यवहार रे, सापेक्ष संसार रे.... - नवनीत अनंत जन्मों से इसी पीड़ा में पड़ा है! ये तो इस जन्म के पत्नीबच्चे हैं, लेकिन हर एक जन्म में हर कहीं बीवी-बच्चे ही रखे हैं! रागद्वेष किए हैं और कर्म ही बाँधे! ये संबंध-वंबंध जैसा कुछ नहीं होता। ये तो कर्म फल देते रहते हैं। घड़ीभर में उजाला देते हैं और घड़ीभर में अंधेरा देते हैं। घड़ी में मारते हैं और घड़ी में फूल चढ़ाते हैं ! इसमें संबंध तो होते होंगे! यह तो अनादि से चल ही रहा है ! हम इसे चलानेवाले कौन? हम अपने कर्मों में से कैसे छूटे, वही 'देखते' रहना है। बच्चों का और हमारा कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो बेकार की उपाधि! सभी लोग कर्मों के अधीन है। यदि सच्चे संबंध हों न, तो घर में सभी लोग तय कर लें कि हमें घर में झगड़ा नहीं करना है, लेकिन ये तो घंटे-दो घंटे बाद लड़ पड़ते हैं! क्योंकि किसी के हाथ में वह सत्ता है ही नहीं न! ये तो सब कर्म के उदय हैं। जैसे पटाखे फूटते हैं, वैसे पटापट-पटापट फूटते हैं। कोई सगा भी नहीं और स्नेही भी नहीं, तो फिर शंका-कुशंका करने को कहाँ रहा? 'आप' खुद 'शुद्धात्मा', यह 'आपका' 'पड़ोसी' शरीर ही आपको दुःख देता है न! और बच्चे तो 'आपके' 'पड़ोसी' के बच्चे। उनके साथ आपका क्या लेना-देना? और पड़ोसी के बच्चे नहीं मानें तो हम उनसे ज़रा कहने जाएँ तो बच्चे क्या कहते हैं कि, 'हम कौन-से आपके बच्चे? हम तो 'शुद्धात्मा हैं'। किसी को किसी की पड़ी नहीं! प्रश्नकर्ता : यदि सार निकालें तो सभी हिसाब वसूलने आए हैं। और हिसाब चुका भी देते हैं, लेकिन उसमें 'समभाव से निकाल' होता है या नहीं, इतना ही हमें चाहिए।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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