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________________ आप्तवाणी-६ ३७ की कि मुझे मार खिलवाते हैं', कभी न कभी आपको ऐसा अनुभव हो जाएगा। प्रश्नकर्ता : दादा, वह अनुभव हो चुका है। होगा नहीं, हो चुका है! अनुभव कैसा कि मुझे ऐसा होता था कि 'यह बूढ़ा परेशान करता है और मैंने तो इस पटेल को होली का नारियल बनाया, परंतु वह सब इस बूढ़े ने ही ठीक कर दिया!' मैंने कहा, 'जान छूटी!' वर्ना मैंने तो दादा आपको इतनी सारी गालियाँ दी थीं कि कुछ बाकी ही नहीं रखा था। फिर भी भीतर ऐसा होता रहता था कि 'ये जो दादा हैं, वे तो सच्चे दादाश्री : वह हम भी घर बैठे जानते हैं सबकुछ। तब एक बार तो मैंने आपसे कहा भी था कि आप उल्टा-सुल्टा बोलो न, फिर भी उसमें मुझे आपत्ति नहीं है। आप तो अपनी तरह से यहाँ पर आते रहना, किसी दिन सबकुछ धुल जाएगा। आप उल्टा-सुल्टा बोलो उसकी हमारे लिए क़ीमत नहीं है। हम तो, आपका किस तरह श्रेय हो, वही देखते रहते हैं। आपका, आपके घरवालों का, सभी का श्रेय देखते रहते हैं। आप तो अपनी प्रकृति के अनुसार बोलते हो। आपकी दृष्टि वास्तव में वैसी नहीं है। आपकी दानत (मनोवृत्ति, वृत्ति) भी वैसी नहीं है, आपके विचार भी वैसे नहीं हैं। वह सब हम जानते हैं। इसलिए अब 'ये मार खिलानेवाले हैं और ये मित्र हैं', इस प्रकार से आप माल को पहचान लो। वे मार खिलानेवाले आएँ तो 'आओ भाई, आपका ही घर है।' कहकर वापस निकाल देना। __अंदर जो दिखाते हैं वह सब गलत है, पूरा सौ प्रतिशत गलत दिखाते हैं, ऐसा आपको समझ में आता है न? शंका का समाधान है ही नहीं प्रश्नकर्ता : परंतु दादा, समाधान में रहना मुश्किल लगता है। दादाश्री : समाधान किस तरह हो पाएगा? दुनिया में शंका का
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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