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________________ आप्तवाणी-६ है। खुद ने घर से भले ही कितना भी नक्की किया हो कि रेस में जाना ही नहीं है, फिर भी चला जाता है। वह बुद्धि का आशय है। हम लोगों ने पिछले जन्म में बुद्धि का आशय किया होगा, उसका हमें खुद को अभी पता चलता है कि यह सट्टाबाज़ार मुझे छू ही नहीं सकता। नालायक व्यक्ति मुझे मिलेगा ही नहीं। बुद्धि के आशय का आधार यह सब बुद्धि के आशय के आधार पर है और बुद्धि का आशय है, वह द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अधीन है। उसमें खुद का कर्तापन नहीं है, कर्तापन माना जाता है, वह भ्रांति है और उस भ्रांति से फिर से नया उत्पन्न होता है। वह छूटता ही नहीं कभी भी! बीज में से वृक्ष और वृक्ष में से बीज, ऐसे चलता ही रहता है! एकबार फल को खाकर बीज का नाश किया जाए तो फिर वह पेड़ उगेगा नहीं। बीज, वह अहंकार है। अहंकार का नाश कर दो। जो फल आए हैं उन्हें खा ले, परंतु बीज का नाश कर दो। हम इसलिए ही कहते हैं कि 'फाइलें' आएँ उन्हें भोगो, उसका समभाव से निकाल (निपटारा) करो। आम के ऊपर का गर्भ खा जाओ और बीज का नाश कर दो। आम का गर्भ आपकी बुद्धि का आशय है, उसमें चलेगा ही नहीं। वह तो खा ही लेना पड़ेगा। परंतु 'यह अच्छा है या यह खराब है', ऐसा मत बोलना। 'समभाव से निकाल' करना। ___अब कहते हैं कि आत्मा ने विभाव किया, कल्पना की। अरे, कल्पना की हो तो हमेशा वैसी ही आदत होनी चाहिए उसे। इसलिए हम कहते हैं न कि साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स मिल गए, इसलिए यह विभाव उत्पन्न हुआ। 'साइन्टिफिक' अर्थात् गुह्य। गुह्य का अर्थ क्या? कि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव वह सब इकट्ठा होने से फिर यह उत्पन्न होता है। आँख पर पट्टी बाँधने के बाद जो भाव उत्पन्न होते हैं, वे विभाव हैं और उसे भावकर्म कहते हैं। हम उसे ऐसा कहते हैं कि विशेष परिणाम खड़े हुए। दो वस्तुओं के सामिप्यभाव से विशेष परिणाम, खुद के गुणधर्म खुद
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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