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________________ आप्तवाणी-६ जिन्हें ये कर्म रहने देने हों, वे रहने दें, परंतु चरम शरीरी को तो उद्दीरणा करनी ही पड़ती है। क्योंकि उसे लगता है कि अब आयुष्य का अंत नज़दीक आ रहा है और दुकान में माल ढेर सारा पड़ा हुआ दिख रहा है! अब वह माल खपाए बिना किस तरह जाया जा सकेगा? एक तरफ मुद्दत पूरी हो रही है, इसलिए भगवान कुछ उपाय कीजिए। तब भगवान कहते हैं, 'कर्म का विपाक करो । विपाक यानी उसे पकाओ। जैसे हम आम को घास में रखकर पकाते हैं न, वैसे ही कर्मों को आप पकाओ ।' तब वे उदय में आएँगे । उद्दीरणा अर्थात् कर्मों का उदय आने से पहले कर्मों को बुलाकर खपा देना । प्रश्नकर्ता : उसे पराक्रम कहा जाता है न? २२८ दादाश्री : वह बहुत बड़ा पराक्रम कहलाता है । पुरुषार्थ में तो खुद है ही, परंतु यह पराक्रम कहलाता है । यह तो उससे भी बहुत आगे का है। प्रश्नकर्ता : आपने जो कहा है न कि कर्मों का नाश कर देते हैं, तो जो संचित कर्म हैं, उनका क्या करना चाहिए? दादाश्री : संचित कर्म तो जब समय हो जाए, तब अपने आप परिपक्व होंगे, तब अपने समक्ष आकर खड़े रहेंगे। हमें उन्हें ढूँढने जाने की ज़रूरत नहीं है। संचित कर्म अपना फल देकर चले जाते हैं । और जो पुरुष हो चुके हैं, वे अमुक योग करके अमुक कर्मों को खत्म कर सकते हैं, लेकिन वह पुरुष होने के बाद में ही । आप अभी जिस दशा में हो, उस दशा में वैसा नहीं हो सकता । अभी आपको वैसा ताल नहीं बैठेगा। अभी तो आपको प्रकृति नचा रही है और आप नाचते हो । पुरुष होने के बाद जिस योग द्वारा कर्मों को खत्म करते हैं, उसे उद्दीरणा कहा जाता है। उद्दीरणा अर्थात् क्या? कच्चे फल को पकाकर झाड़ देना । कर्म का विपाक हुए बिना, खिचड़ी कच्ची हो तो क्या करते हैं? वैसे ही कर्म कच्चे हों और जाने का समय हो जाए तो क्या करेंगे? इसलिए फिर उसे पका
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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