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________________ आप्तवाणी-६ २२७ तो बाते करते हैं, परंतु हमारे भीतर हमारी बात चलती ही रहती हैं।' कि 'आज आपको प्राप्त तप आया है। इसलिए एक अक्षर भी बोलना नहीं है।' लोग तो दिलासा देना चाहते हैं कि, 'दादा, आपको ठीक लग रहा है या नहीं?' तो कहें, 'बहुत अच्छा लग रहा है।' परंतु कमिशन हम किसी को भी नहीं देते, क्योंकि भोगते हैं हम! एक अक्षर भी बोले, वे दादा कोई और! उसे प्राप्त तप किया कहा जाता है! उद्दीरणा, पराक्रम से प्राप्य! प्रश्नकर्ता : यह उद्दीरणा (भविष्य में फल देनेवाले कर्मों को समय से पहले जगाकर वर्तमान में खपाना) करते हैं न, वह खरा तप नहीं कहलाता? दादाश्री : उद्दीरणा, वह तो पुरुषार्थ माना जाता है! परंतु पुरुष होने के बाद का पुरुषार्थ है! वास्तव में तो यह पराक्रम में आता है ! सातवें गुंठाणे के नीचे कोई कर नहीं सकता, यह पराक्रमभाव है! आपसे इस ज्ञान के बाद अब सभी उद्दीरणाएँ हो सकती हैं! आपको बीस वर्ष बाद जो कर्म आनेवाले हों, तो आज आप वे सब भस्मिभूत कर सकते हो! प्रश्नकर्ता : परंतु वह किस तरह पता चलेगा कि बीस वर्ष बाद आनेवाला है? दादाश्री : क्यों, वह गाँठ विलय हो गई तो फिर खतम, फिर तो 'एविडेन्स' इकट्ठे होंगे, बस उतना ही, परंतु दुःखदायी नहीं रहा! प्रश्नकर्ता : हम जो ये प्रतिक्रमण करते हैं, वह उद्दीरणा होती है न? दादाश्री : उसमें उद्दीरणा ही होगी। क्योंकि आज अड़चन नहीं आई, फिर भी किसलिए कर रहा हूँ? वह मौजमज़े के लिए नहीं है! फिर भी प्रतिक्रमण करते-करते जो आनंद होता है, वह लाभ अतिरिक्त है। अपनी यह 'अक्रम' की 'सामायिक' आप करते हो, उसमें सभी कर्मों की उद्दीरणाएँ हो जाएँ, ऐसा है। हम लोग चरम शरीरी नहीं हैं, इसलिए
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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