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________________ आप्तवाणी-६ २२१ प्रश्नकर्ता : पुरुषार्थ भाग जो है वह, उसमें सूक्ष्म समझ का भाग, वही पुरुषार्थ कहलाता है? इन्द्रियों की लगाम छोड़ देनी, वह क्या इसमें आ जाएगा? दादाश्री : आप सुबह से बोलो कि आज इन्द्रियों के घोड़े की लगाम छोड़ देते हैं, इस प्रकार पाँच बार शुद्ध भाव से बोलो। फिर अपने आप ही छूटी हुई लगाम को देखो तो सही, एक रविवार का दिन बीतने तो दो! यह तो क्या हो जाएगा, क्या हो जाएगा?' 'अरे, कुछ भी नहीं होगा, तू तो भगवान है। क्या होनेवाला है भगवान को?' खुद अपने आपमें इतनी हिम्मत नहीं आनी चाहिए कि मैं भगवान हूँ? 'दादा' ने मुझे भगवान पद दिया है! ऐसा ज्ञान है, फिर भगवान हो गए हो। परंतु अभी तक उसका पूरा-पूरा लाभ नहीं मिलता! उसका कारण क्या है? कि आप उसे आज़माइश की तरह लेते ही नहीं न! उस पद का उपयोग ही नहीं करते और यदि थोड़ा-बहुत ऐसा रहे तो? प्रश्नकर्ता : हमें इन पाँच इन्द्रिय के विषयों में अरुचि से रहना अर्थात् अभिप्राय के बिना रहना है, ऐसा? दादाश्री : अभिप्राय तो पूरा ही छूट जाना चाहिए। अभिप्राय तो बिल्कुल होना ही नहीं चाहिए। किंचित्मात्र भी अभिप्राय हो, किसी जगह पर रह गया हो, तो उसे तोड़ देना चाहिए! इस संसार में सुख है, इन पाँच इन्द्रियों में सुख है', ऐसा अभिप्राय तो रहना ही नहीं चाहिए! और वे अभिप्राय, वे हमारे नहीं हैं ! वे अभिप्राय सब चंदूभाई के! 'मैं तो दादा का दिया हुआ शुद्धात्मा हूँ', और शुद्धात्मा, वही परमात्मा है! इतना समझ लेने की ज़रूरत है! ये पाँच आज्ञाएँ दी हैं, वे शुद्धात्मा के प्रोटेक्शन के लिए हैं! बैर का कारखाना यह समभाव से निकाल करने का नियम क्या कहता है, कि तू, किसी भी तरह से उसके साथ बैर नहीं बंधे, इस प्रकार से निकाल कर दे! बैर से मुक्त हो जा! अपने यहाँ तो यही एक चीज़ करने जैसी है,
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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